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________________ ३७-.९] चतुर्विशः सर्गः १०९९ मूर्तिः शरीरं यस्य येन वा यशसा कीर्त्या नित्यशो निरन्तरं निषेव्यते, अतोऽसौ महीभतां पर्वतानां चये समूहे अन्तर्मध्ये महत्त्वं प्रभुत्वमा साद्य प्राप्य अधीश्वरो गिरिराजः सन् सुतरां विराजतेऽत्यन्तं शोभते ॥३६॥ । अपामपायाखवला बलाहकावलिः सुखात्संवृतिका विलोक्यते । सुरैरमुष्मिन् विवृतेऽपि पर्वते स्वयं सयोषैः सुरताभिसन्धिभिः ॥३७॥ अपामित्यादि-अस्मिन् विवृतेऽपि निराच्छादनेऽपि पर्वते स्वयं योषाभिनिजनियोगिनीभिः सहितैः सयोषः सुरताभिसन्धिभिः संगमाभिलाषिभिः सुरैरपां जलानामपायादभावाद्धवला श्वेतवर्णा या बलाहकानां मेघानामावलिः पङ्क्तिरवशिष्यते । सा सुखादनायासात् संवृतिका यवनिका विलोक्यतेऽनुभूयते ॥३७॥ मणीनिहान्तः सहसा निगोपयन् शिलातलानि प्रकृतानि दर्शयन् । दरीभृदभ्यागतनःपुरस्सरं सुकेशि! कूटस्थतया विराजते ॥३८॥ मणोनित्यादि-हे सुकेशि ! असौ दरीभृत् पर्वतोऽभ्यागतस्य नुर्नरस्य पुरस्सारं संमुखे सहसा स्वभावेनैव मणीन् हीरकादीनिहान्तश्छन्नान् निगोपयन् सन् शिलातलानि तान्येव प्रकृतानि दर्शयन् पुनरेष कूटः शिखरैरेवं च मायाचारैः सह तिष्ठतीति कूटस्थस्ततया विराजते नित्यमवलोक्यते ॥३८॥ झरैरविच्छिन्ननिपातशालिभिर्महीभृतामोशतयाऽयमिष्यते । परिस्फुरद्भिविशदैर्ध्वजांशुकैरिवातिमात्रोन्नतिमन्नितम्बिनि !॥३९॥ झररित्यादि-हे अतिमात्रोन्नतिमन्नितम्बिनि ! परिस्फुरद्भिः प्रकाशमानविशवः निरन्तर सेवित रहता है, अतः पर्वतोंके समूहके बीच महत्त्व प्राप्त कर अधिपातके समान अत्यन्त सुशोभित हो रहा है ॥३६॥ अर्थ-पर्वत यद्यपि विवृत है-खुला है आच्छादनसे रहित है, फिर भी यहाँ जलके अभावसे जो श्वेतवर्ण मेघोंकी पंक्ति दिखायी देती है वही स्त्री सहित संभोगके इच्छुक देवोंके द्वारा स्वयं संवृत्तिका-परदा मान ली जाती है-उसे वे परदा रूप से देखते हैं ॥३७॥ अर्थ-हे सुकेशि ! यह पर्वत यहाँ हीरा आदि मणियोंको तो स्वभावसे भीतर छिपा कर रखता है और बाह्य शिलातलों-प्रस्तरखण्डोंको दिखताला है, अतः अभ्यागत मनुष्यके संमुख कूटस्थता-मायाचारका व्यवहार करता है (पक्षमें कूटों-शिखरोंसे नित्य ही अवस्थित रहता है ॥३८॥ अर्थ-हे अत्यन्त विशाल नितम्बोंसे सुशोभित प्रिये ! जो सब ओर फह७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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