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________________ १०९८ जयोदय- महाकाव्यम् [ ३५-३६ निरुक्तितो हिमारातेहिमनाशकस्य विवस्वतः सूर्यस्य गति वारयितुमुन्नतः सन्नपि दृषदी पाषाणानां रुच इव रुचो येषां तानम्बुमुचो मेघानुपर्युपरि समुद्धरन् सन्नभ्युन्नमति मुहुरप्युन्नतो भवति । उत्प्रेक्षालंकारः।।३४।। परिस्फुरच्छ्रीमणिमेखलाञ्चिता बिर्भात या सम्प्रति सालकाननम् । असौ महाभोगनियोगिनी गिरेस्तटो तुलां ते प्रकटीकरोति भोः ॥ ३५॥ परिस्फुरदित्यादि - भोः सुन्दरि ! असौ महत आभोगस्य परिपूर्णत्वस्य विस्तारस्य पक्षे महतो भोगस्य रतिसुखस्य नियोगोऽभिसम्बन्धो यस्याः सा तथा परिस्फुरन्ति प्रभवन्ति श्रीयुक्ता मणयो यस्यां तया मेखलया समुत्तुङ्गनितम्बमालया काठच्या चाचिता युक्ता 'काच्यां शेलनितम्बे च खङ्गबन्धे च मेखला' इति विश्वलोचने । या सम्प्रति सालानां नाम वृक्षाणां काननं वनं पक्षेऽलकेः केश: सहितमाननं मुखं बिर्भात सेयं तटी ते तुलां समानतां प्रकटीकरोति त्वत्त ल्या प्रतिभासते । उपमालंकारः श्लेषेण ॥ ३५ ॥ हिमच्छलात्प्रापितमूर्तिना प्रिये ! निषेव्यतेऽसौ यशसा हि नित्यशः । महत्त्वमासाद्य महीभृतां चये विराजतेऽन्तः सुतरामधीश्वरः ॥३६॥ हिमच्छलादित्यादि - हे प्रिये ! असौ गिरिः हिमच्छलात् तुषारव्याजात् प्रापिता रोकने के लिये ही मानों पाषाणके समान कान्तिवाले मेघोंके ऊपर-ऊपर समुन्नत होता हुआ ऊँचा हो रहा है । भावार्थ - कैलास पर्वत बर्फका स्थान है, अतः बर्फका नाशक सूर्य यहाँ पर न आ पावे इस भावनासे ही मानों यह पर्वत उठते हुए मेघोंके कारण दिन प्रति दिन ऊँचाई पकड़ रहा है ||३४|| अर्थ - भो सुन्दरि ! पर्वतकी यह तटी तुम्हारी समानताको प्रकट कर रही है, क्योंकि जिस प्रकार पर्वतकी तटी परिस्फुच्छ्रीमणिमेखलाञ्चिता - देदीप्यमान सुशोभित मणियोंसे युक्त मेखला - नितम्ब मध्यभागसे सहित है, उसी प्रकार तुम भी परिस्फुरच्छ्रोमणिमेखलाञ्चिता- देदीप्यमान मणिमयी मेखला - करधनीसे सुशोभित हो। जिस प्रकार पर्वतकी तटी महाभोगनियोगिनी - बहुत भारी विस्तारके सम्बन्धसे सहित है उसी प्रकार तुम भी महाभोगनियोगिनी - बहुत भारी रतिसुखके सम्बन्धसे सहित हो और जिस प्रकार पर्वतकी तटी इस समय सालकानन-वृक्षोंके वनको धारण करती है उसी प्रकार तुम भी सालकाननअलक - केशोंसे सहित आनन - मुखको धारण कर रही हो ॥३५॥ अर्थ – यह पर्वत तुषारके छलसे मूर्तिमान् अवस्थाको प्राप्त यशके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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