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________________ ३२-३४ ] चतुर्विंशः सर्गः निभाल्य शीतांशुमिवेममुज्ज्वलं बलप्रभोराविरभूद् गिरा तदा । तदाननात् संव्रजतोऽधिकां मुदमुदन्वतः श्रीमत ऊमिसन्निभा ॥३२॥ निभाल्येत्यादि - इमं गिरिं शीतांशुं चन्द्रमसमिवोज्ज्वलं निर्मलं निभाव्य दृष्ट्वा तदा का बलप्रभोर्जयकुमारस्याधिकां मुदं प्रसन्नतां संव्रजतोऽनुभवतस्तस्मात् प्रसिद्धादाननात्तदाननात् श्रीमत उदन्वतः समुद्रामि सन्निभातरङ्गतुल्या गिरा वाणी किलाविरभूबुदगात् । उपमालंकारोऽनुप्रासश्च ॥ ३२॥ १०९७ बिर्भात रीति महतों मृगेक्षणे क्षणे नियुक्तो बहुलोहगोचरः । चरन्नितोऽष्टापदसम्पदं धरो धरोदये राजतभालसंविभः ॥ ३३ ॥ विभर्तीत्यादि - हे मृगेक्षणे हरिणाक्षि ! गिरिरयं क्षणे नियुक्त उत्सवस्य विषयो यतोऽसौ महतीं रीति प्रवृत्ति पित्तलधातु वा बिर्भात तथा बहुलस्योहस्य वितर्कस्य गोचरोऽथवा बहुलोहस्यानल्पस्यायसो गोचरो विषयोऽसौ घरः पर्वत इतश्चाष्टापद इति सम्पदं समीचीनं नामाथवाऽष्टापदस्य स्वर्णस्य सम्पदं विभूति चरन्ननुभवन् धरोवये राजतभालसंविभो रजतस्येदं राजतं भालं तेजोऽथवा राजतं स्वच्छं भालं ललाटं तस्य संविभा शोभा यस्य स समस्ति ॥ ३३ ॥ असौ हमारातिविवस्वतो गति हिमालयो वारयितुं समुद्धरन् । उपर्युपर्यम्बुमुचो दृषदुचः समुन्नतोऽभ्युन्नमतीति सुन्दरि ||३४|| असावित्यादि - हे सुन्दरि ! असौ हिमालयो हिमस्यालय: स्थानमस्येति : रहा है, बहुत भारी सुखको देने वाला है और उत्तमोंमें भी उत्तम है, ऐसे सामने आये हुए कैलास पर्वत के जयकुमारने दर्शन किये ॥ ३१ ॥ अर्थ - चन्द्रमाके समान उज्ज्वल इस पर्वतको देखकर अत्यधिक प्रसन्नताको प्राप्त हुए जयकुमारके प्रसिद्ध मुखसे उस प्रकार वाणी प्रकट हुई, जिस प्रकार कि श्रीमान्-शोभासम्पन्न समुद्रसे लहरें उत्पन्न होती हैं ||३२|| अर्थ - हे मृगनयने प्रिये ! उत्सवमें नियुक्त उत्सव - आनन्दको करने वाला यह पर्वत महती रीति - बहुत भारी प्रवृत्तिको धारण करता है ( पक्षमें पीतलको धारण करता है ), बहुलोहगोचर - नाना प्रकारके वितर्कोंका विषय है ( पक्षमें बहुत भारी लोहका विषय है), इस ओर अष्टापदसम्पदं - अष्टापद इस द्वितीय नामको (पक्ष में स्वर्णरूप सम्पदाको ) प्राप्त हुआ पृथिवीके अभ्युदयमें राजतमालसंविभ: - चाँदी के तेजके समान ( पक्ष में स्वच्छ ललाटके समान ) है ||३३|| अर्थ - हे सुन्दरि ! बफेंका घरस्वरूप यह पर्वत बर्फके शत्रु सूर्यकी गतिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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