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२७-२९] चतुर्विंशः सर्गः
१०९५ दिनात्यये प्रावृषि वारि वर्षति सति स्वसानावनुपातिभवजम् । व्रजन्ति विद्याधरकन्यका पुनः पुनश्च यस्मिन् करकेति नन्दिना ॥२७॥
दिनात्यय इत्यादि-यस्मिन् पर्वते प्रावृषि वर्षौ दिवात्यये समये सायंकाले वारिवर्षति सति स्वसानो निजाङ्किते शृङ्गेऽनुपातिनां भानां नक्षत्राणां वजं समूहं करकेति नन्दिनाऽमी धनोपला एवेति किलानन्देन तं लातु व्रजन्ति विद्याधरकन्यकाः 'नन्दिः शिवप्रतीहारे द्यूतभाण्डभिदोर्मुदि' इति विश्वलोचनेसंदेहालंकारः ॥२७॥ रुषाङ्कितहादिनिकोऽपि सोऽप्यसौ शिरस्स्वमुष्यामृतपूरमर्पयन् । पुनः सदभ्रोत्तमतूलकल्पनो बिति कारुण्यकमेव देवराट् ॥२८॥ ____ रुषेत्यादि-देवराट् शक्रोऽर्थान्मेघः स प्रथमं तु रुषा रोषेणामुष्य गिरेः शिरःसु अङ्किता ह्रादिनिका विद्युदेवाशनिर्येन सोऽपि पुनरनन्तरमथामृतस्य जलस्यौंषधेर्वा पूरमर्पयन् सन् सदभ्रमेव तूलः पिचुस्तस्य कल्पना निर्माणं यस्य स सम्भवन् कारुण्यक करुणाभावं बिति ॥२८॥ स्मरद्विद्रिः खलु जेतुमुत्तटस्तटान्तसंलग्नबलाहकावलिः । बलिद्विषः पत्तनमात्तपक्षतिः क्षति निजां तेन कृतामनुस्मरन् ॥२९॥
स्मरविडद्रिरित्यादि-अयं स्मरद्विद्रिः कैलासगिरिः स तटान्ते स्वप्रान्ते संलग्ना बलाहकानां निर्जलमेघानामावलिः पतिर्यस्य सः, उन्नत उच्चर्गतस्तटो यस्य स उत्तट:
अर्थ-जिस पर्वत पर वर्षा ऋतुमें सायंकालके समय पानी बरसने पर अपने द्वारा अधिष्ठित शिखर पर क्रमसे उदित होनेवाले नक्षत्रोंके समूहको ओले समझ कर विद्याधर कन्याएँ हर्षपूर्वक बार-बार लेनेके लिये जाती हैं ॥२७॥ __अर्थ–मेघ प्रथम तो इस पर्वतके शिखरों पर बिजली रूपी वज्र गिराता है फिर अमृत-जल अथवा औषध अर्पित करता है और उसके बाद सफेद मेघ रूप रुईकी पल्ली उड़ाता है । इस तरह वह करुणा भावको धारण करता हुआ सा जान पड़ता है। ____ भावार्थ-वर्षा होनेके पहले बिजली कोंदती है फिर जलवृष्टि होती है पश्चात् जलरहित सफेद सफेद मेघ शिखरों पर छा जाते हैं । इसी प्राकृतिक दृश्यका यहाँ आलंकारिक भाषामें वर्णन है ॥२८॥
अर्थ-जिसके तटके समीप मेघमाला लग रही है, ऐसा ऊँचे तटोंका धारक यह कैलास पर्वत ऐसा जान पड़ता है कि इन्द्रके द्वारा की हुई पक्षाघात रूपी
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