SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०९२ जयोदय-महाकाव्यम् [ १९-२१ निवारिता तापतया घनाघना घना वनान्ते सुरतश्रमोद्भिदः । भिदस्तु किं वा निशि संगतात्मनां मनागपि प्रेमवतामुताह्नि वा ॥१९॥ निवारितेत्यादि-यस्य गिरेवनान्ते काननप्रान्ते घना निबिडा ये घनाघना मेघास्ते निवारितो दूरीकृत आतपः सूर्यस्य प्रभावो यैस्तत्तया सुरतोश्रमोद्भिदः सुरतश्रमस्य रतिक्रीडाजन्यपरिश्रमस्योच्छेदका भवन्ति । ततः संगतात्मनां संश्लिष्टानां प्रेमवतां मियुनानां यत्र निशि वाप्युताह्नि दिनसे वा मनागपि कि भिवस्तु भेदो भवेत्किन्तु नैव भवेदिति काकूक्तिरलंकारः ॥१९॥ समस्ति शिल्पं यदयं स्वयंभवो भवोऽर्द्धमद्ध नभसोऽपि संचयात । चयाश्रयो भूरिदरीमयोऽसकौ स को पुनः कोऽस्य गिरेस्तु यः समः॥२०॥ समस्तीत्यादि-यद्यस्मात्कारणादयं गिरिरद्धं भुव पृथिव्या अर्द्ध च नभसो गगनस्य संचयात्समाश्रयात् स्वयंभुवः प्रकृतेरेव शिल्पं समस्ति, यतोऽसको चयस्य समुच्चयस्याश्रयः सन्नपि भूरिदरीमयो नानागुहात्मकोऽप्यस्ति । को भूम्यां स पुनः को योऽस्य गिरः समस्तुल्योऽस्तु, नास्ति कश्चिदपि । स एवानुप्रासोऽलंकारः ॥२०॥ निजीयनानामणिमण्डलांशुभिर्दिवौकसामीशधनःश्रियं प्रियाम् । समातनोति प्रभुरेष भूभृतां स्वयंसमापन्नपयोदमण्डले ॥२१॥ निजीयेत्यादि-एष भूभृतां प्रभुनिजीयाः स्वस्मिन् संजाता ये नानामणयस्तेषां मण्डलस्यांशुभिः किरणः स्वयमेव समापन्नानामाप्राप्तानां पयोदानां मेघानां मण्डले दिवौकसामोशस्येन्द्रस्य यद्धनुस्तस्य श्रियं शोभां कीदृशीं तो प्रियां मनोहरां समातनोति ॥२१॥ अर्थ-जिस पर्वतके वन प्रान्तमें सघन मेघ सूर्यके प्रभावको दूर करनेके कारण रतिक्रीडा सम्बन्धी श्रमको नष्ट करते रहते हैं, अतः परस्पर मिलित प्रेमी जनोंके लिये रात और दिनमें क्या थोड़ा भी भेद है ? अर्थात् नहीं है ? भावार्थ-सघन मेघोंके विद्यमान रहनेसे जहाँ दिनकी गर्मी प्रेमी मनुष्योंके उपभोगमें बाधक नहीं है ।।१९।। अर्थ-यतश्च यह पर्वत अर्धभाग पृथिवीका और अर्धभाग आकाशका लेकर निर्मित है, अतः स्वयंभू-प्रकृतिको कलारूप है। संचयका आश्रय लेनेके कारण यह बहुत भारी गुहाओंसे तन्मय है। पृथिवी पर वह कौन पर्वत है, जो इस पर्वतके समान हो सके ? अर्थात् कोई नहीं है ॥२०॥ अर्थ-यह पर्वतोंका प्रभु-कैलाश पर्वत अपने विविध मणिसमूहकी किरणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy