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________________ १६-१८] चतुर्विंशः सर्गः १०९१ विहृत्य चान्या अपि तीर्थभूमिकाः सुसंकुचदुष्कृतकर्मकूर्मिकाः । मनः पुनस्तस्य बभूव भूपतेर्महामतेः श्रीपुरुपर्वतार्चने ॥१६॥ विहत्येत्यादि-सुसंकुचन्ति अतिशयसंकोचमञ्चन्ति दुष्कृतानि यानि कर्माणि तान्येव कूर्माः कमठा यत्र ता अन्या अपि च तीर्थभूमिका विहृत्य गत्वा पुनस्तस्य महीपतेभूपतेर्मनः श्रीपुरुपर्वतस्य कैलासनामगिरेरर्चने समाराधने बभूव ॥१६।।। प्रतिच्छवि हन्ति तिरो निजाङ्गजां गजाधिपोऽद्रेःप्रतिदन्तिवित्तया। तया रिरंसुः सुशिलासु संवशादशाशयाभुग्नरदः स सम्प्रति ॥१७॥ प्रतिच्छविमित्यावि-जाषिपोऽस्याः पर्वतस्य सुशिलासु स्वच्छासु शिलासु तिरःपतितां प्रतिच्छविं स्वप्रतिबिम्बमेव प्रतिवन्तिवित्तया गजबुद्धचा हन्ति, स एव पुनर्भुग्नरवस्त्रुटितदन्तो भूत्वा संघशात् स्वेच्छावशाद वशाशयासौ वशा हस्तिनोति बुद्ध याभिलाषया वा सम्प्रति तया सह रिरंसुः किल रन्तुमिच्छुः स्यादिति । स एव सिंहावलोकन रूपोऽनुप्रासोऽलंकारः ॥१७॥ भ्रमन्ति ये यं परितो मदोत्कटा कटाः श्रयन्ते ननु चेतनात्मनाम् । मनांसि सेवार्थममुष्य पर्वतावतार उऊध्रपतेरिति भ्रमम् ॥१८॥ भ्रमन्तीत्यादि-यं कैलाशपर्वतं परितो ये मदोत्कटा मवप्रचुरा हस्तिनो भ्रमन्ति । कीदृशास्ते ? कटाद्भुताः कटाशब्दोऽव्ययोऽद्भुतवाचकः, 'अद्भुतेऽपि कटाव्ययम्' इति विश्वलोचने। ननु सोऽयममुष्योऊध्रपतेगिरीश्वरस्य सेवार्थ पर्वतावतारः पर्वतानामवतारः समागम एवेति भ्रमं चेतनात्मनां विचारभृतां मनांसि चित्तानि श्रयन्ते गच्छन्ति । पूर्वोक्त एव शब्दालंकारो भ्रान्तिमदलंकारश्च ॥१८॥ ___ अर्थ-जिनमें पाप कर्मरूपी कछए अत्यन्त संकोचको प्राप्त हो जाते हैं, ऐसी अन्य तीर्थभूमियोंमें भी गमन करनेके बाद महा बुद्धिमान् राजा जयकुमारका मन कैलास पर्वतकी पूजा करनेमें तत्पर हुआ ॥१६॥ ___ अर्थ-एक गजराज इस पर्वतकी स्वच्छ शिलाओं से प्रतिबिम्बित अपने प्रतिबिम्बको विरोधी हाथी जानकर उस पर प्रहार करता है । प्रहार करनेसे उसका दाँत टूट गया, पश्चात् वही गजराज उस प्रतिबिम्बको हस्तिनी समझ उसके साथ रमण करने की इच्छा करता है ॥१७॥ ___ अर्थ-जिस कैलास पर्वतके चारों ओर जो मदोन्मत्त एवं आश्चर्यकारी हाथी घूमते हैं, वे इस पर्वत राजकी सेवाके लिये क्या पर्वतके अवतार ही हैं ? विचारवान् मनुष्यों के मन इस प्रकारके भ्रमको प्राप्त होते हैं ? ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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