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________________ १०८९ ११-१३ ] चतुविंशः सर्गः भियेव भव्यो भवभावितच्छलात् स्वयं महोद्यानचतुष्टयच्छलात् । सुवृत्त एताः परिवर्तिताकृतीबिति धर्मार्थनिकामनिव॒तीः ॥११॥ भियेवेत्यादि-एष गिरिः सुवृत्तो वर्तुलाकृतिरतः सुचरित्रोऽत एव भव्यो दर्शनीयो भद्रश्च स भवः संसार एव भवः संहारकारको रुद्रस्तेन भावितं समुत्पादितं यच्छलं प्रपञ्चस्तस्माद्भिया भयेनेव हेतुना परिवर्तिता रूपान्तरं नीता आकृतयो यासां ता धर्मश्चार्थश्च निकामश्च निर्वृतिमुक्तिश्च ता एता महोद्यानानां सान्द्राणां चतुष्टयस्यच्छलाद्विभर्तीत्युपह नुत्यलंकारः ॥११॥ सुकोतिगङ्गाजननाधिकारिणोऽथ वर्षभाधीननिजस्थितीनपि । कुलस्य कल्पानिव तान् कुलानवाप निष्पापतया कुलाग्रणीः ॥१२॥ सुकीर्तीत्यादि-अपि कुलाग्रणीः कुलीनशिरोमणिः स जयकुमारः निष्पापतया पुनीतपरिणामेन शोभना कीतिर्यस्यास्सा गङ्गाथवा सुकीतिरेव गङ्गानदी तस्या जनने जन्मदानेऽधिकारिणोऽथ च वर्षस्य क्षेत्रस्य भा नाम स्थितिस्तस्या अधीना निजस्थितिर्येषां पक्षे तु ऋषभस्य नाभेयस्याधीना निजस्थितिर्येषां तान् कुलाचलान् नाम वर्षधरपर्वतांस्तान् कुलस्य कल्पान् विधीनिवावाप । 'दीप्तौ च स्थानमात्रे भा' इति विश्वलोचने ॥१२॥ स्म राजते राजतपर्वतान् यजन् सुरासुराराध्यपदाननापदी । स्वनामवृत्त्यर्द्धतयातिवल्लभान् धरावधूहासविलासभासुरान् ॥१३॥ पीत वस्त्रधारी श्रीकृष्णसे सहित विरञ्चिपुत्र-नारदजीकी उत्तम शोभाको धारण कर रहा था ।।१०॥ ____अर्थ-सुवृत्त-गोल (पक्षमें सदाचारसे युक्त) अत एव भव्य-दर्शनीय (पक्षमें रत्नत्रयका पात्र) यह पर्वत भव-संसाररूपी भव-संहारकारक रुद्रके द्वारा समुत्पादित छलसे भयभीत होनेके कारण ही मानों जिन्होंने अपना रूप परिवर्तित कर लिया है ऐसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चार पुरुषार्थों को चार महान् उद्यानोंके छलसे धारण करता है ॥११॥ ___ अर्थ-निष्पाप-पापरहित होनेके कारण कुलीन मनुष्योंमे शिरोमणि स्वरूप जयकुमार उन कुलाचलोंको भी प्राप्त हुए जो उत्तम कीर्तिसे युक्त गङ्गा नदीको अथवा सुकीर्ति रूप गङ्गाको जन्म देनेके अधिकारी हैं अथ च वर्ष-क्षेत्रोंकी भा-स्थितिके अधीन जिनकी स्थिति है, अर्थात् जो क्षेत्रोंका विभाग करने वाले हैं (पक्षमें भगवान् ऋषभदेवके अधीन जिनकी स्थिति है, अर्थात् इनके पूर्व जिनको उत्पत्ति हुई है) और जो कुलकरोंके समान जान पड़ते हैं ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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