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________________ ६-७ ] चतुर्विंशः सर्गः कम्बुकौ येन स गृहीतसुदर्शन पाञ्चजन्य इति विष्णुरिव विराजते कृष्णनारायणवद् दृश्यते । उपमालंकारः ॥ ५ ॥ पयोधराभोगसुयोगमञ्जुलां तटीं समन्ताद्धरिचन्दनाञ्चिताम् । गिरीश्वरः सेवत एव सत्तमां निजार्द्धदेहानुमितां तु पार्वतीम् ॥६॥ पयोधरेत्यादि - अयं गिरीश्वरः पर्वतमुख्यो महादेवश्च यतः पयोधराणां मेघानां पक्षे पयोधरयोः स्तनयोराभोगस्य सद्भावस्य सुयोगेन समागमनेन मञ्जुलां समन्ताद्धरिचन्दनेनाञ्चितां तन्नामवृक्षेण तद्रवेण वा समलंकृतां निजस्थाद्धेन देहेनानुमितामङ्गीकृतां पार्वतों पर्वतसम्बन्धिनों तटों तामेव वा पार्वतीं नाम वामां सत्तमां मनोहारिणीं सेवत एवेति किलोपमा श्लेषश्च ॥ ६ ॥ अथास्ति जम्बू पपदेऽन्तरोपके स एव सम्यक् खलु कणिकायते । विदेहदेवोत्तरदेश पत्रकैः १०८७ पयोधिमध्ये श्रिय आसनायते ||७|| अथास्तीत्यादि - अथापि पुनः स एव सुमेरुरस्मिन् जम्बूपवेऽन्तरोपके द्वीपे सम्यक्offer कमलमध्यावयव इवाचरतीति कणिकायते । यद्वा यो द्वीपः पूर्वापरविदेहदेशदेव-कुरूत्तरकुरुवेशरूपैः पत्रकैः सुमेरुरूपकणिकासहितः पयोधेर्लवणसमुद्रस्य मध्ये श्रियो लक्ष्म्या आसनं कमलमिवाचरतीत्यासनायते । रूपकोऽलंकारः ॥७॥ हो गयी और जो दो हाथोंसे सुदर्शन चक्र तथा पाञ्चजन्य शङ्खको धारण कर रहे थे ॥५॥ अर्थ - - गिरीश्वर - पर्वतों में मुख्य सुमेरु पर्वत ( पक्ष में महादेव) पयोधराभोगसुयोगमञ्जुलां-मेघोंके सद्भावरूप सुयोगसे मनोहर ( पक्ष में स्तनोंके विस्तार सम्बन्धी सुयोगसे मनोहर ) सब ओर हरिचन्दनाञ्चितां - हरिचन्दनके वृक्षोंसे सुशोभित ( पक्ष में लालचन्दनके द्रवसे सुन्दर) सत्तमां - अत्यन्त श्रेष्ठ, निजार्द्धदेहानुमितां - अपने अर्ध देहके द्वारा स्वीकृत ( पक्ष में अर्द्धाङ्गिनी रूपसे परिणत ) पार्वती तटीं - पर्वत सम्बन्धी तटी (पक्षमें पार्वती नामक स्त्री) का सेवन नियमसे करता है ॥६॥ भावार्थ - तटीके स्त्रीलिङ्ग होनेसे उसमें स्त्रीका श्लेष किया गया है । पार्वतीकी व्युत्पत्ति मेरुपक्ष में पर्वतस्येयं पार्वती होगी और महादेव पक्ष में पर्वतस्यापत्यं स्त्री पार्वती होगी || ६ || Jain Education International अर्थ - फिर वही सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीपमें निश्चयसे कणिका - मध्यम अवयवके समान आचरण करता है अथवा वह जम्बूद्वीप भी पूर्वापर विदेह तथा देवकुरु उत्तरकुरुरूप पत्रों और मेरुपर्वतरूपी कणिकासे सहित होकर लवण - समुद्रके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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