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चन्द्रमा पश्चिम दिशमामें पहुँच रहा और पूर्व दिशामें लालिमा छा रही है-इसका आलंकारिक वर्णन देखिएधिग्वारुणीमनुभवन्विनिपातमेति,
योऽस्मत्सकाश उदयं विधुराप चेति । भासौ घृणापरकयेन्द्रदिशाशु दन्त
वासः परावृतममुष्य समस्तु सन्तः ॥३३॥ हे सत्पुरुषो! पूर्व दिशामें जो यह लाल-लाल कान्ति फैल रही है, यह किससे उत्पन्न हुई ? मैं कहता हूँ, सुनो, पूर्व दिशा सोचती है कि जो चन्द्रमा हमारे सन्निधानमें उदय (पक्षमें उन्नत दया) को प्राप्त हुआ, वही वारुणी-पश्चिम दिशा (पक्षमें मदिरा) का सेवन करता हुआ विनिपात-अधोगमन (पक्षमें पतन) को प्राप्त हो रहा है, इसे धिक्कार हो, यह सोच कर घृणा करने में तत्पर पूर्व दिशा रूपी स्त्रीने अपना अवरोष्ठ फुलाया, उसीसे यह लाल कान्ति उत्पन्न हुई ।
इसी संदर्भके अन्य उत्प्रेक्षाका अवलोकन कीजिए । रात्रि, एक असंतुष्टा नायिका हैयात्येकतोऽपि तु कुतोऽपि विरज्य राज
न्यात्माधिपेऽपरदिशां प्रतियाति राजन् । सत्पुष्पतल्पमसको रजनी दलित्वा,
रोषारुणा विकृतवाग्भरतश्छलित्वा ॥३६।। मागध, जयकुमारको सम्बोधित करते हुए कहते हैं-हे राजन् ! अपना पति चन्द्रमा (पक्षमें अपना स्वामी) जब किसी कारणसे नाराज हो पश्चिम दिशा (पक्षमें अन्य नायिका) की ओर चला गया, तब यह रात्रि (पक्ष में असंतुष्ट नायिका) क्रोधसे लाल हो विकृत वाग्-पक्षियोंके द्वारा कृत कलरव (पक्षमें आक्रोश पूर्ण वचनों) से झकझक करने लगी और नक्षत्र रूपी फूलोंकी सेज नष्ट-भ्रष्ट कर एकान्तमें चली गई। कुमुदिनीका निमीलन, सूर्यका उदय, चन्द्रमाको निष्प्रभताका वर्णन एकत्र देखिएचन्द्रोऽस्पृशत्कमलिनीमहसत्कमोदि
न्येतद्वयेऽरुणदगर्यमराड् विनोदिन् । स्रागभ्युदेति किल तेन कुमुद्वतीयं,
मौनिन्यमूच्छशभृदेति च शोचनीयम् ॥३८॥ हे विनोदरसिक ! चन्द्रमाने कमलिनीका स्पर्श किया, यह देख कुमुदिनीने हंस दिया, इन दोनों कार्यों पर क्रोधसे लाल-लाल नेत्र करता हुआ सूर्य रूपी राजा शीघ्र ही उदयको प्राप्त हो रहा है, इससे कुमुदिनी--कुमुद्वती-कुत्सित हर्षसे युक्त होती हुई मौन
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