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________________ ८५-८८] त्रयोविंशतितमः सर्गः १०८३ हे नर ! निजशुद्धिमेव विद्धि सिद्धिहेतुं परथा जलसंविलोडनास्तु सपिषे तु ॥ स्थायी ॥८५॥ हे नरेत्यादि-हे नर ! सिद्धेः सफलताया हेतुं कारणं निजस्य शुद्धि मनःसम्यग्भावनामेव विद्धि जानीहि । परथा किलेतस्मादन्यथाकरणंतु सपिणे घृताय जलस्य संविलोडना निर्मथनवृत्तिरस्तु व्यर्थकष्टाय भवेदिति ॥८५।। सात्यकिरतपत्तुतरां दैवी सम्पच्च परा। लब्धा खलु मुग्धतरा चित्तवागमे तु ॥हे नर० ॥८६॥ सात्यकिरित्यादि-सात्यकिर्नाम रुवस्तु यद्यप्यतपत्तरां बहु तपश्चकार तेन पुनर्देवी विक्षिप्राया सम्पच्च परा समुल्लेखनीया लब्धा, किन्तु तदागमे सति तस्याश्चिद् बुद्धिः प्रत्युत पूर्वापेक्षयापि खलु मुग्धतराभूत् ॥८६॥ मसकपूरणोऽपि यतिः समभूच्च तथाङ्गमतिः । उद्धतामथापगति भगववागमे तु ॥ हे नर० ॥८७॥ मसकेत्यादि-मसकपूरणो यतिरपि तपस्यायाः प्रभावात्तथाङ्गमतिरेकादशाङ्गवेत्ता समभूवय च पुनर्भगवदागमे जिनशासने तु लिखितमस्ति यत्किल स उद्धतामविनीतां गतिमवस्थानमापेति ॥७॥ तुषमाषवदनविदोः शिवघोमुनिः सभिदोः । न किमाप रहस्यमहो भवसमुद्रसेतुम् ।। हे नर०॥८॥ तुषमाषवदित्यादि-शिवघोषनाम मुनिरङ्गं शरीरं विच्च बुद्धिस्तयोस्तुषमाषवत् सभिदोर्भवसहितयोर्यग्रहस्यं गढतत्त्वमवस्तद्भवसमुद्रसेतु संसारसागरात्तरणोपायमत्यल्पज्ञानवानपि किन्नाप ? अपि तु प्राप्तवानेवेति वक्रोक्तिः ।।८८॥ अर्थ-हे मानव ! तूं स्वकीय शुद्धि-अपने मनकी पवित्रताको हो सिद्धिका कारण जान, अन्य प्रवृत्ति करना तो घोके लिये जलका विलोलना ही है ।।८।। अर्थ-सात्यकि नामक रुद्रने अत्यधिक तप किया और उसके फलस्वरूप देवोपनीत सम्पत्-विद्या ऋद्धि भी प्राप्त की, परन्तु उसके प्राप्त होने पर भी उसकी बुद्धि पूर्वकी अपेक्षा अत्यन्त मूढ़ हो गयी ॥८६॥ ___ अर्थ-मसकपूरण यति भी तपस्याके प्रभावसे ग्यारह अङ्गका वेत्ता हुआ था, परन्तु जिनागममें तो लिखा है कि वह अविनीत-अशोभन गतिको प्राप्त हुआ है ।।८७॥ अर्थ-शिवघोष मुनि तुषमाषके समान भेदसे सहित शरीर और आत्माके उस रहस्य-गूढ तत्त्वको क्या प्राप्त नहीं हुए जो संसार सागरसे पार होनेके ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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