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________________ ८०-८२ ] त्रयोविंशतितमः सर्गः १०८१ स्वीयेत्यादि-एतयोर्जम्पत्योः स्वीयेन भोगाषि खगेन्द्रजीवनेऽनुनीताः साधिता या विद्यास्ता एवानयोः सुकृतस्य शुभोक्यस्य वशा अधीनाः सत्यो विनीता विनयभावमाप्ता अखाधुनागत्य कृतिनौ कृत्या त्यवेविनावेतौ प्रणिपत्येतयोर्दास्यमाज्ञाकारित्वं स्वीकृतवत्यः । अनुप्रासोऽलंकारः ॥७९॥ वियोगदूना दयिता इवोरुरीकृता नृता तीर्थभृता महीभृता। सनाथतां प्राप्य गताः कृतार्थताममुष्य वश्या अपि कामसिद्धये ॥४०॥ वियोगदूना इत्यादि-नृता मानवतेव तीर्थ तद् बिति यस्तेन महीभृता जयकुमारेण वियोगेनाब यावद्विरहेण दूना दुःखिता वयिता वल्लभा इवोररीकृताः स्वीकृताः सनावतां प्राप्य कृतार्थतां सफल जीवनतां गता याः किलामुष्य वश्या वशंगता अप्यमुष्य कामसिद्धये वाञ्छितसम्यत्तये बभूवुस्ताः। उपमानुप्रासालंकारः ।।८०॥ सत्कार्यसाधिकाश्चापि पथभ्रष्टा इवालिकाः । सुक्शा सुवृशादृत्य ता विद्याः सफलीकृताः ॥८१॥ सत्कार्येत्यादि-सुदशा सुलोचनयापि सत्कार्यस्य साधिका वाञ्छितस्य कर्यस्ता विद्या आलिका वयस्या इवाधावधि पथभ्रष्टास्ताः सुदृशा समीचीनया दृष्टयानोक्रत्य सफलीकृताः । इहाप्युपमालंकारः ॥८१॥ हदि प्रसेदुरासाद्य विस्मृताविव तावुभौ । ललाटलतिकाचूडामणी ताः सुतरां शुभौ ॥४२॥ अर्थ-अपने विद्याधर जन्ममें इन्होंने जिन विद्याओंको सिद्ध किया था, वे विद्यायें इस समय इनके वशीभूत हो तथा विनीत भावसे आकर कृत्य-अकृत्यके जानने वाले इन दोनोंकी दास्यवृत्ति को प्राप्त हुईं ॥७९।। अर्थ-मानवतारूप तीर्थको धारण करने वाले राजा जयकुमारके द्वारा स्वीकृत वे बिद्याएँ, जो कि आज तक विरहसे पीड़ित वल्लभाके समान दुःखी थीं, सनाथताको प्राप्त कर कृतकृत्य होती हुई उनके अभिलषितकी सिद्धिके लिये संलग्न हो गई ॥८॥ अर्थ-सुलोचनाने भी समीचीन कार्यको सिद्ध करने वाली उन विद्याओंको पथभ्रष्ट-मार्ग भूली हुई सखियोंके समान समीचीन दृष्टिसे आदृत कर सफल किया ।।८१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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