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________________ १०७६ जयोदय-महाकाव्यम् विषयरसाय दशा सकषाया शोच्या स्याद् विवशा या । गजस्येव कपटमुकायां मनसो बहुलापाया || इ० ॥ ६६ ॥ विषयरसायेत्यादि - इहास्यां मायायां मनसो वशा विषयाणां रसायास्वावनाय सकषायाऽभिलाषवती ततश्च विवशा विषयाधीनाऽतश्च शोच्या चिन्ताया विषयोऽपि स्यात्ः किल या मनसो दशा कपटेन कृता या भ्रमुका हस्तिनी तस्यां गजस्येव गजवत् सा बहुलापाया दुःखपूर्णा स्यात् ॥ ६६ ॥ मित्रकलत्रपुत्रविसरायां परम्परायाम् । चित्तं जरद्गवः कर्दमितघरायामिव सीदति विधुरायाम् || ६० ||६७ || मित्रेत्यादि - इदं चित्त विधुरायां भयदायिन्यां मित्रं च कलत्रं स्त्री च पुत्रं चेतेषां विसरो विस्तारो यत्र तस्यां परम्परायां कर्दमितघरायां जरद्गवो वृद्धवलीवर्द इव किल सीदति कष्टमनुभवति ॥ ६७ ॥ रताद् विरक्ताप्यनुरतिमायात्यरते जगतश्छाया । ततो विरज्य नरोऽस्मात्कायात्किमिव न शान्तिमथायात् ॥ इह० ॥६८॥ [ ६६-६८ रतादित्यादिइ-यत्र जगतः शरीरधारिणः प्राणिनश्छाया प्रतिमूर्तिस्सापि रतावनुरक्तात्तदनुग्राहकाद्विरक्ता विरुद्धगामिनी भूत्वाथाऽरते तदनपेक्षिणि जनेऽनुति सानुकूलवृत्तिमायाति किलेति दृश्यते ततः पुनर्नरोऽस्मात्कायाच्छरीराद्विरज्य समुदासीनो भूत्वा किमिव शान्ति निद्वन्द्रतामयाद् गच्छेदिति चिन्त्यमस्ति ॥६८॥ अर्थ - इस मायामें मनकी दशा विषयोंकी अभिलाषा रखती हुई विवश और शोचनीय हो जाती है । जिस प्रकार कपटसे निर्मित कृत्रिम हस्तिनीमें आसक्त हस्तीकी दशा अनेक कष्टोंसे युक्त होती है, उसी प्रकार आपातरमणीय विषयों में आसक्त रहने वाले मनुष्यकी दशा अनेक कष्टोंसे सहित होती है ||६६ || अर्थ - मित्र, स्त्री तथा पुत्रके विस्तारसे सहित इस दुःखदायिनी परम्परामें यह मानव उस प्रकार दुःखका अनुभव करता है, जिस प्रकार कि कर्दमयुक्त भूमिमें बूढ़ा बैल || ६७॥ अर्थ- संसारकी प्रणाली है-प्रवृत्ति है कि वह रत- चिरपरिचितसे विरक्त होकर अरत - अपरिचित - नई वस्तुमें प्रीतिको प्राप्त होती है, फिर यह मनुष्य चिरपरिचित शरीरसे विरक्त हो अद्यावधि अप्राप्त शान्तिको होता ? ||६८ ॥ क्यों नहीं प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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