SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७० जयोदय- महाकाव्यम् [ ४६-४९ एकदा भ्रामरों दृष्ट्वाश्रागतौ तावृषी हृष्ट्वा । भवस्मृतिमित्यतः सृष्ट्वा तयोः समयो बुरितहर्ता ॥ ४६ ॥ एकवेत्यादि - एकवात्र भ्रामरी चर्यामागतावृषी द्वौ मुनी दृष्ट्वाऽतो हृष्ट्वा चेत्यतो भवस्मृति जातिस्मरणवशां सुष्ट्वा लब्ध्वा पुनस्तयोश्शेषसमयः कालक्षेपो दुरितहर्ता पापर्वाजतोऽभूत् ॥४६॥ पुरा जनुरागता प्रीतिः प्रबुद्धतया पुनः स्फीतिः । प्रसन्नतया तथाधी तिर्गणोऽयं सर्वशुभभर्ता ॥४७॥ पुरेत्यादि -- तयोद्वयोः पुराजनुरागता जन्मान्तरादायाता प्रीतिरासीत् पुनरघुना प्रबुद्धतया जातिस्मरणभावेन कर्तव्याकर्तव्यज्ञानेन व स्फीतिर्मनसः स्फूतिस्तथा प्रसन्नतया निराकुलभावेनाधीतिः समध्ययनमित्ययं गणः सर्वप्रकारेण शुभस्य परिपाकस्य भर्ता बभूव ॥ ४७|| ब्रह्मचर्यं समालब्धमितो भवतो भयं लब्धम् । नुभवयोग्यो विधिर्दृन्धः समन्ताच्छान्तिपरिकर्ता ॥४८॥ ब्रह्मचर्यमित्यादि -- तस्मात्ताभ्यां द्वाभ्यामित आरभ्य ब्रह्मचर्यं कामचेष्टावर्जनं समारब्धं स्वीकृतं भवतो जन्ममरणात्मकावस्मात् भयं लब्धमेवं समन्तादभितः शान्तेः परिकर्ता समुत्पावको नुभवयोग्यो विधिर्नरजन्मनि यत्कतु पार्यते स प्रक्रमो वृग्धः समारब्धस्ताभ्यामिति ॥ ४८ ॥ Jain Education International धर्मः खलु शर्महेतुरीष्यते फिरिरेव समस्तु हरिर्यस्य जनानाम् । संविधानात् ॥ ४९ ॥ ( स्थायीदं ) अर्थ - एक समय कुबेरप्रियके घर चर्याके लिये दो मुनिराज आये, उन्हें देखकर कबूतर - कबूतरी हर्षको प्राप्त हो जातिस्मरणको प्राप्त हो गये, जिससे उनका शेष समय पापसे रहित हो गया । अर्थात् दोनों ब्रह्मचर्यसे रहने लगे ॥४६॥ अर्थ - उन दोनोंकी प्रीति पूर्व जन्मसे चली आ रही थी पर अब जातिस्मरण होनेसे और भी अधिक विस्तृत हो गई तथा प्रसन्नता - निराकुलतापूर्वक अध्ययन होने लगा । यह सब कार्य उनके पुण्यके पूरक हो गये ||४७ || अर्थ - अब यहाँ से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया, संसारसे भय प्राप्त किया और सब ओरसे शान्ति प्राप्त कराने वाली मनुष्य पर्यायके योग्य विधि प्राप्त कर ली - मनुष्यों के योग्य आचरण करने लगे ॥४८॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy