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४३-४५ ]
त्रयोविंशतितमः सर्गः
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समायोगः सम्प्रयोग एव हि भवति सोऽत्रास्तीतः शुश्रुषवः श्रोतुमिच्छा वन्तस्तेऽमी सभ्याः सभायोग्याः सन्ति, प्रश्नकर्ता च स्वयं भर्ता स्वामीति प्रसन्नता विषयः ॥ ४२ ॥
विदेहे पुण्डरीकिण्यामिहेव वृषानुरागिण्याम् ।
एनसः संमिरागिण्यां बभूव विभो शुभा वार्ता ॥४३॥
विदेह इत्यादि -- इहैव जम्बूद्वीषे विवेहक्षेत्रे या पुण्डरीकिणी नाम नगरी तस्यां कोदृश्याम् ? एनसः पापात् संविरागिणी सम्यग्विरक्ता तस्यामेषा शभा वार्ता विभो ! बभूव ॥४३॥
कुबेरस्य प्रियो नाम्ना धनी यतिवत्तिकृद् धाम्नाम् । पतिः प्रतिसम्मतिः साम्नां सदारो धर्मसंधर्ता ||४४ ॥
कुबेरस्येत्यादि - तत्र कुबेरप्रियो नाम धनी यो यति दत्तिकृत् पात्रदानकर्ता धाम्न गृहाणां पतिगृहस्थः साम्नां गृहस्थोचितकार्याणां प्रति सम्मतिः समर्थनकरो धर्मस्य च संघर्ता धारकोऽभूत् ॥४४॥
रतिवरः किंच रतिषेणा कपोतवरद्वयीमेनाम् |
ररक्ष
सुरक्षणोऽनेनास्तवापच्छापपरिहर्ता ॥४५ ॥
रतिवरेत्यादि - रतिवरः कपोतो रतिषेणा च कपोतीति कपोतद्वयमेतन्नाभवत रक्ष पालितवान् । यः सुरक्षणः सुष्ठुतया रक्षाकरः सुन्दरलक्षणधरश्चात एवानेनाः पापपरिवर्जकस्तयोरापवां संभवस्य शापस्य वुराशिषः परिहर्ता च ॥४५॥
करने वाला होता है । इधर समस्त सभासद् श्रोता थे और स्वामी - जयकुमार स्वयं प्रश्न करने वाले थे ॥४२॥
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अर्थ — हे स्वामिन् ! इसी जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र सम्बन्धी, धर्मानुरागसे सहित एवं पापसे विरक्त पुण्डरीकिणी नगरी में यह शुभ बात हुई थी, अर्थात् कथाका प्रारम्भ पुण्डरीकिणी नगरीसे शुरू होता है ||४३||
अर्थ - पुण्डरीकिणी नगरीमें एक कुबेरप्रिय नामका धनी जो मुनियोंकी आहार आदि दान देता था, गृहस्थ धर्मका गृहस्थोचित धर्मको धारण करता था ॥४४॥
अर्थ - रतिवर कबूतर और रतिषेणा नामक कबूतरी इन दोनोंकी वह रक्षा करता था । वह कुबेरप्रिय सुरक्षण-अच्छी तरह रक्षा करने वाला र और ल अभेद होनेसे सुलक्षण-अच्छे लक्षणों वाला था, पाप रहित था और उन दोनोंकी आपत्तिरूप शापका परिहार करने वाला था ॥ ४५ ॥
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गृहस्थ रहता था समर्थक था और
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