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________________ ३१-३३ ] त्रयोविंशतितमः सर्गः निजां तनुं स्रागभितः सभामनु स तां तमेषा च गुणोल्लसज्जनुः । वृशेति तौ साचि गतौ निरीक्षणं न वाचि साचिव्यमवापतुः क्षणम् ॥३१॥ निजामित्यादि - प्रथमं तु तावभितः समन्ततो निजां तनुमनु ततः सभामनु ततः स जयस्तामनु एषा सुलोचना च तमनु गुणेनायुर्बलेनोल्लसति प्रभवति जन्म यत्र तद्यथा स्पातथा वृशा चक्षुषा साचिनिरीक्षणं तिर्यगवलोकनं गतौ पुनरपि क्षणं वाचि वचनोकचारणे साचिव्यं कौशलं नावापतुः ।। ३१॥ १०६५ तदा विश्वं स तदात्मशुद्धितः श्रुतं च दृष्टं क्व कटाक्षबुद्धितः । तथा न शास्त्रेष्वपि लभ्यते मनागहो महो भातु सदा सदात्मनाम् ||३२|| तदापेत्यादि - तदा स जयकुमारस्तत्सुप्रसिद्धं वित्त्वं बुद्धिमत्वमाप, कस्मात्कारणाबापेति चेत् ? आत्मनो मनसः शुद्धित एवाप यद्विस्वमक्षबुद्धित इन्द्रियज्ञानेन क्वापि कदापि वा न तु वृष्टं न श्रुतं तथा शास्त्रेष्वपि मनागपि न लभ्यते, तवपूर्व महः सवात्मनां सम्यङ्मनोवतां सदा भातु अहो स विस्मयः कौ ॥। ३२ ।। स्वभूतजन्मोत्थकथा यथा वरा बभूव चित्रोल्लिखितेव गोचरा । यतो बभौ स स्विदगर्भसंभवं भवान्तरं प्राप्त इवाधुना नवम् ||३३|| स्वभूतेत्यादि - यतो विस्वतस्तस्य स्वभूतजन्मोत्थकथा निजीयपूर्वजन्मवार्ता सा चित्रोल्लिखितेव गोचरा स्पष्टा बभूव सविस्तरा शुभा च । स्विदथवा यतः सोऽघुनाऽगर्भसम्भवं नवं नवीनं भवान्तरमन्यज्जन्म प्राप्त इव बभौ रराज ॥३३॥ अर्थ - पहले तो उन्होंने शीघ्र ही अपने-अपने शरीरको देखा, पश्चात् सभाउपस्थित जनसमूहको देखा, फिर गुणोंसे शोभायमान जन्म वाले जयकुमारने सुलोचनाको देखा और सुलोचनाने जयकुमारको देखा । इस तरह वे दोनों दृष्टिके द्वारा तो एक दूसरेको तिरछी चितवनसे देखते रहे, परन्तु क्षणभर - कुछ समय • तक बोलनेकी कुशलताको प्राप्त नहीं हो सके ||३१|| अर्थ - उस समय जयकुमारने मनकी विशुद्धतासे वह ज्ञान प्राप्त किया था जो इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञानसे न कभी कहीं सुना गया और न देखा गया तथा शास्त्रों में भी वह ज्ञान कुछ नहीं प्राप्त होता है । आत्मज्ञ मनुष्योंका वह आश्चर्यकारी आत्मतेज सदा प्रकाशमान रहे ||३२|| अर्थ - जिस ज्ञानसे उन्हें अपने पूर्वजन्म सम्बन्धी कथा चित्रलिखितके समान स्पष्ट हो गयी अथवा वे इस समय गर्भवासके बिना ही मानो नवीन जन्मको प्राप्त हो गये ||३३|| -23: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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