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जयोदय-महाकाव्यम्
[२९-३० मेषा छतिः सम्छादनवृत्तिः, आपवि विपत्तौ सत्यां गतिरुपायो पौत्येन धूर्तभावेन रयाच्छो. घ्रमेव क्लप्ता संरचिता। यौवतं युवतिवृत्तमिदं छपन एव सम्प्रस्थानमितीदं संघोषयन्त्या सुलोचनयेति ॥२८॥ बभूब तस्या मनसो रसो धवं प्रतीह यावत्सुभगं पुराभवम् । विनिर्ययो चित्तवनन्यसेविकापि वा तमन्वेष्टुमिवाधिदेविका ॥२९॥
बभूवेत्यादि-एवं तस्याः सुलोचनाया मनसो रसो विचार इह पुराभवं पूर्वजन्मसम्बन्धिनं सुभगं सर्वाङ्गसुन्दरं धवं स्वामिनं प्रति बभूव यावतावदेव तस्या अनन्यसेविका चिद् बुद्धिः साधिदेविकाधिकारिणीव भूत्वा तं स्वामिनमन्वेष्टुं विनिर्ययो। वापीति पावपूरणार्थम् ॥२९॥ चिभयोः शुभयोगवशान्नणां समवियाय निमज्ज्य समुत्तणा। निभृतमेवमयोनिपयोनिधावथ च कौतुकि को तु कियविधा ॥३०।।
चिदित्यादि-अथ च निभृतं यथेष्टसमयपर्यन्तमुभयोः पतिपल्योः जयसुलोचनयोश्विच्चेतनवमयोनिरभावखानिस्तस्याः पयोनिधो समुद्र निमज्ज्य बुडित्वा नृणां प्रजाजनानां शुभयोगवशात् भाग्योदयात् तु पुनः कौतुकिनां विनोदवतां को भूम्यां कियद्विधा कतिपयप्रकारा मुदो हर्षस्य तृणेनांशेन सहिता सती सा समुदियाय चेतनतां जग्मतुर्जम्पती किलेति भावः । अनुप्रासोऽलंकारः ॥३०॥
जो दुराचार किया था और संस्कारवश विना इच्छाके ही उसका जिसमें नामोच्चारण हो जाता था, उसी दुराचरणको छिपानेके लिये विपत्ति कालमें इसने धूर्ततावश यह मूर्छा रूप उपाय रचा है सो ठीक ही है, क्योंकि युवतियों की यह चेष्टा मायाचारका घर है, इस बातको आज इसने घोषित किया है ॥२८॥ ___ अर्थ-इस तरह सुलोचनाके मनका विचार जब तक पूर्वभव सम्बन्धी सर्वाङ्ग सुन्दर पतिके प्रति हुआ, तबतक उसकी अनन्यसेविका बुद्धि अधिकारिणी जैसी होकर उसे खोजनेके लिये मानों निकल पड़ी ॥२९॥ ____ अर्थ-जयकुमार और सुलोचनाकी चेतना इस तरह यथेष्ट समय पर्यन्त अभावरूप समुद्रमें डूबकर प्रजाजनोंके पुण्योदयसे हर्षरूप तृणोंको लेकर ऊपर आ गई । विनोदी जीवोंकी भूमिमें वह चेतना कितने ही प्रकारकी थी, अर्थात् सब लोग विविध प्रकारसे हर्षका अनुभव कर रहे थे ॥३०॥
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