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________________ . २७-२८] त्रयोविंशतितमः सर्गः स्फुटेऽपीत्यादि-दुविधानां दुरभिमानिनां दुर्भाग्यानां वा मतिः स्फुटे प्रस्पष्टे तत्त्वे विषयेऽपि किमिति न विमुह्यतेऽपि तु यात्येव मोहम् । यथा ज्वरी ज्वरयुक्तो जनः क्षीर दुग्धमपि विषं कटुकमितीयाद् गच्छेदेवाहो किलाश्चर्यकारीदं वृत्तम् । तदव मयापि च प्रसज्जन प्रसङ्ग आप्यते तादृगेवेति ।।२६॥ तवन्यनारीनिकरः करोत्यसौ सहाथ पत्या विनिपातकैतवम् । परस्पर प्रेमपरावृतीहया हयायमानेति मनस्यतर्कयत् ॥२७॥ तदन्येत्यादि-तस्याः सुलोचनाया अन्या या नार्यस्तासां निकरः समूह सपत्नीगणः स किलासी सुलोचना हयायमाना विपुलकामवासनावती परस्परं पतिपन्योः यत्प्रेम तस्य परावृतिः पुनरावर्तनं तस्येहया वाञ्छया प्रेमभङ्गो न स्यादिति विचारेण पत्या सह विनिपातस्य मूर्च्छणरूपस्य कैतवं छडू करोतीति मनसि स्वचेतस्यतर्कयद् विचारया-- मास । अनुप्रासोऽत्रापि ॥२७॥ बाल्ये लौल्यवशाच्च यत्सहकृतं केनापि संवेशिना तन्नामस्खलनकधाम दुरितं संगाढसंदेशिना। तस्यैषा छदिरेवमापविगतिौयन क्लुप्ता रयात् सपच्छपन एव यौवतमिदं संघोषयन्त्यानया ॥२८॥ बाल्य इत्यादि-किंवा केनापि संगाढसंदेशिना सुवृढसंदेशकारिणा संवेशिना सुन्दराकारधारिणा सह बाल्ये कौमारे लोल्यं चापल्यं तस्य वशावत्कृतमनया चेष्टितं तस्य नामस्खलनमनिच्छया नामनिरुक्तिस्तदेकं धाम यस्य तदुरितं दुराचरणं यत्तस्यैव अर्थ-दुरभिमानी अथवा जिनको भवितव्यता अच्छी नहीं है ऐसे मनुष्योंकी बुद्धि स्पष्ट तत्त्वके विषयमें भी क्या विमोहको प्राप्त नहीं होती? जिस प्रकार पित्तज्वर वाला मनुष्य दूधको भी विषके समान कटुक मानता है उसी प्रकार इष्ट जनोंकी समीचीन बुद्धि भी सुर्भाग्यसे विपरीत अर्थको ग्रहण करती है। आश्चर्य है कि मैं भी इसी विमोहमें आसक्तिको प्राप्त हो रहा हूँ ॥२६॥ ___ अर्थ-सुलोचनाके अतिरिक्त जो अन्य स्त्रियों ( सपत्नियों ) का समूह था उसने मनमें ऐसा विचार किया कि यह सुलोचना तीन काम वासनासे सहित है, अतः पारस्परिक प्रेम परिवर्तनकी इच्छासे पतिके साथ मूच्छित होनेका छल कर रही है ॥२७॥ ____ अर्थ-सपत्नियोंका समूह मनमें विचार करता है कि इस सुलोचनाने कुमारावस्थामें चपलतावश सुदृढ सन्देश देने वाले किसी सुन्दर पड़ोसीके साथ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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