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________________ करते हैं, कमलिनी विकसित होती है, कुमुदिनी निमीलित होती है, चन्द्रमा मिष्प्रभ हो जाता है, तारे लुप्त हो जाते हैं, उदयाचलमें सूर्यका उदय होता है, चकवा-चकवीकी विरह वेदना समाप्त होती है, उलूक अन्धे होकर गुफाओंमें छिपते हैं, चारण विरद बखानते हैं और प्रतापी राजाके समान सूर्यका उदय होता है । इत्यादि प्राकतिक कार्यो. के चित्रमें कविने अपनी कल्पनाकी कूचिकासे जो रङ्ग भरा है, वह वरवश पाठकके मनको मोह लेता है। इन सब प्रसङ्गोंका वर्णन श्लेषालंकारका अवलम्बन लेकर कहीं दार्शनिक पद्धतिसे, कहीं ऐतिहासिक पद्धतिसे, कहीं राजनीतिक परिवेषसे और कहीं राज-- नीतिके नेपथ्यसे किया है, जो एकसे एक बढ़कर है । यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैप्रातः वायु मन्द-मन्द चल रही है, क्यों ? इसके लिये कविकी उत्प्रेक्षा हैलुप्तोरुरत्ननिचये वियतीव ताते, चन्द्रे तु निष्करदशामधुना प्रयाते । धूकेऽपकर्मनयने द्रुतमेव जाते मन्दं चरत्यधिगमाय किलेति वाते ॥ ४ ॥ सबके लिए आश्रय देनेसे पिताके तुल्य जो आकाश था उसका विशाल रत्नोंका संग्रह (नक्षत्र समूह) लुप्त हो गया,-लट लिया गया। पुत्र तुल्य जो चन्द्रमा था, वह निष्कर-किरण रहित (पक्षमें हस्तरहित) अवस्थाको प्राप्त हो गया अर्थात् चन्द्रमा आकाशके लुप्त रत्नोंके खोजनेमें असमर्थ हो गया और रात्रिमें विचरने वाले को उलए थे उनके नेत्र देखने में असमर्थ हो गये। अतः किसी अन्य सहायकको न पाकर वायु स्वयं ही उन लुप्त रत्नोंके समूहको खोजनेके लिए मानों धीरे-धीरे चल रही थी। तां पुष्पिणीं व्रततिमभ्युपगम्य सम्यक्, शुद्धेन तेन पयसा प्लवनं वरं यः। सम्प्राप्तवान्न पुनरप्युपसर्ग एष, __ स्यान्मन्दमित्थमनिलश्चरति प्रगे सः ॥ २६ ॥ पुष्पितलता (पक्षमें रजस्वला स्त्रो) का सम्पर्क-स्पर्श पाकर जो शुद्ध जसे स्नानको प्राप्त हुआ था ऐसा पवन, यह सोचकर कि यह झंझट पुनः प्राप्त न हो, प्रातःकालके समय धीरे-धीरे चल रहा हो, तात्पर्य यह है कि उस समय शीतल, सुगन्धित और मन्द पवन चल रही है। इस संदर्भकी एक उत्प्रेक्षा और देखिएकिञ्चाहतः स्तनतटैनिपतन्विलग्ने, __ योषाजनस्य परिवर्तितनाभिदध्ने । रुद्धो नितम्बशिखरैरिति सम्प्रबुद्धो, मन्दं प्रयाति पवनः स पुनस्तु शुद्धः ॥ २७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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