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'यमकादो भवेदैवयं डलोरलोवबोस्तथा' इसका जगह-जगह दिग्दर्शन होता है। काव्यकी अङ्ग-वन क्रीड़ा, जलक्रीड़ा, चन्द्रोदय, पानगोष्ठी, दूतीप्रेषण, संभोग, प्रभात, सूर्योदय, नदी, पर्वत आदिका सुन्दर वर्णन इस महाकाव्यमें प्रस्तुत किया गया है । शृङ्गार, वीर और शान्त रसका यथास्थान विनिवेश भी दर्शनीय है।
विक्रम संवत् २००७ में जब यह काव्य मूल रूपमें प्रकाशित होकर जैन जैनेतर विद्वानोंके पास भेजा गया, तब कवि की काव्य प्रतिभासे सभी विद्वान् आश्चर्यचकित रह गये। सबको आश्चर्य हुआ कि इस समय भी श्री हर्ष, माघ, भारवि और कालिदासकी कोटिका काव्य-निर्माता विद्यमान है। अप्रसिद्ध शब्दोंके प्रयोग और उनकी विचित्र संयोजनासे हतप्रभ होकर जब आचार्य ज्ञानसागरजी महाराजसे अनुरोध किया गया कि टीकाके बिना ग्रन्थोंका हार्द प्रकट नहीं होगा, तब उन्होंने स्वयं इसकी संस्कृत टीका लिखी। प्रकाशित मूल प्रतिमेंसे उन्होंने कितने ही श्लोकोंको छोड़ा, कितने ही का क्रम परिवर्तन किया, कितनेका ही नया समावेश किया और पूर्वार्द्ध में कितने ही का अन्वय भी लिख दिया । उसके आधारसे स्व. पं० हीरालालजी शास्त्रीने पं० अमृतलालजी साहित्याचार्य एवं जैनदर्शनाचार्य वाराणसीके सहयोगसे इसके १३ सर्गोका हिन्दी अनुवाद किया, जिसे ब्यावरकी ज्ञानसागर ग्रन्थमालाने प्रकाशित किया । शास्त्रीजीके दिवंगत हो जानेसे १४-२८ सर्गका उत्तरार्द्ध प्रकाशित होनेसे रह गया । सम्पादन और अनुवादके लिए इसकी पाण्डुलिपि यद्यपि ५ वर्ष पूर्व मेरे पास आ चुकी थी, परन्तु अन्य व्यस्तताओंके कारण मैं कुछ काम नहीं कर सका। इसी बीच पाण्डुलिपि कुछ अन्य लोगोंके पास भी पहुँचाई गई, पर ग्रन्थको दुरूहता और कार्यके परिश्रमसाध्य होनेके कारण कुछ हो नहीं सका।
सागर विद्यालयसे अवकाश प्राप्त हो जानेके बाद इस काव्यको देखा और आचार्य ज्ञानसागरजी महाराजके द्वारा स्वलेखनीसे लिखित स्वोपन संस्कृत टीका तथा उनके द्वारा प्रयुक्त अप्रसिद्ध शब्दोंके संग्रह रूप विश्वलोचन कोषको सामने रखकर कार्य चालू किया, जो अनवरत ६ माहके परिश्रमसे पूर्ण हुआ। सम्पूर्ण अन्य काव्य प्रतिभाके चमत्कारोंसे भरा हुआ है। पर इस संक्षिप्त लेखमें उनका निवर्धन सम्भव नहीं है । अतः इसके अठारहवें सर्गमें वर्णित प्रभात वर्णनके कुछ प्रसंग पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करनेका प्रयास करता हूँ । पाठक देखें और तुलनात्मक अध्ययन करें कि माघ आदि महाकवियोंके प्रभात वर्णनसे इसमें क्या कैसा वैशिष्ट्य है।
अठारहवें सर्गमें १०४ श्लोकोंके द्वारा प्रभात वर्णन हुआ है । अन्तके कुछ श्लोकोको छोड़कर समग्र सर्गमें वसन्ततिलका छन्दका प्रयोग हुआ है। यह छन्द जब अनेक रागरागनियोंमें पढ़ा जाता है, तब श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।
प्रातलामें मन्द-मन्द वायु चलती है, पूर्व दिशामें लाली छा जाती है, पक्षी कलरव
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