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________________ PaaRR8888560208988sawgawrappea938 Miagn os 800 8280388888 ण से सम्पादकीय-प्रस्तुति आजके स्याति प्राप्त, बहुश्रुत आचार्य विद्यासागरजीके दीक्षा एवं विद्यागुरु स्व. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराजने जब वे महाकवि भूरामलजी शास्त्रीके नामसे जाने जाते थे, तब "जयोदय महाकाव्य" को रचना की थी। यह काव्य, संस्कृतके उपलब्ध महाकाव्योंमें परिमाणकी अपेक्षा जहाँ अद्वितीय है, वहाँ काव्यकी समस्त विधाओंके सुविस्तृत वर्णन एवं अलंकारोंके चमत्कार पूर्ण संयोजनसे भी अद्वितीय है। इसके २८ स!में हस्तिनापुरके राजा जयकुमारका प्रारम्भसे लेकर निर्वाण प्राप्ति तकका वर्णन है । जयकुमार भारतवर्षके आद्य चक्रवर्ती भरत महाराजके प्रधान सेनापति रहे हैं। दिग्विजयके कालमें इन्होंने मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, गणबद्ध देवोंसे भी विजय प्राप्त की थी। घटना तृतीय कालके अन्तको है । इनकी प्रिया सुलोचना, भगवान् वृषभदेवके द्वारा कर्मभूमिमें स्थापित चार राजवंशोंमेंसे एक वाराणसीके राजा अकंपन महाराजकी पुत्री थी। अकंपनने इसके विवाहके लिए स्वयंवरका आयोजन किया था। यह स्वयंवर भारतमें होने वाले स्वयंवरोंमें आद्य स्वयंवर था। उसमें भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्ति आदि भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजपुत्र सम्मिलित हुए थे। सुलोचनाने जयकुमारके कण्ठमें जयमाला डाली । अपने आपको अपमानित समझ अर्ककीर्तिने जयकुमारसे युद्ध किया। युद्ध में जयकुमारने विजय प्राप्त की। महाराज अकंपनने अपनी छोटी पुत्री रत्नमालाका अर्ककोतिके साथ विवाह कर विद्वेषकी भावनाको बुद्धिमत्तासे शान्त किया। इस स्वयंवरका साङ्गोपाङ्ग वर्णन महाकवि हस्तिमल्लने स्वरचित 'विक्रान्त कौरव' नाटकमें किया है । विस्तृत प्रस्तावनाके साथ मैंने इसका सम्पादन-अनुवाद किया है और प्रकाशन वाराणसीकी प्रसिद्ध प्रकाशन संस्था 'चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन' ने किया है । यही सब कथानक और जयकुमारके अन्यान्य वृत्तान्तोंको लेकर महाकवि भरामलजीने जयोदय काव्यकी रचना की थी। श्री महाकवि भूरामलजी प्रतिभासम्पन्न कवि थे। काव्य रचनाके लिए उपयुक्त कारणोंमें प्रतिभाका प्रमुख स्थान है। यह प्रतिभा उनमें पूर्ण रूपसे विद्यमान थी। न केवन जयोदय काव्यकी रचना उन्होंने की है किन्तु वीरोदय, दयोदय, सुदर्शनोदय आदि महाकाव्य तथा चम्पू ग्रन्थोंकी भी रचना की है। इनका प्रकाशन व्यावरकी मुनिश्री ज्ञानसागर ग्रन्थमालासे हो चुका है। जयोदय काव्य कवि कल्पनाओंका अनुपम भाण्डार है । श्लेष, विरोध, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारोंसे समस्त काव्य समलंकृत है। सम्पूर्ण ग्रन्थमें अन्त्यानुप्रासका स्थान सुरक्षित रखा गया है। संस्कृतके अनेकों अप्रसिद्ध शब्दोंका इसमें प्रयोग हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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