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१०५८ जयोदय-महाकाव्यम्
[ १३-१४ मित्यही रुषःस्थलं दोषाधारो न स्याद्भवेदिति वासनाया वश एव तु किलानन्यचेतास्तदेकमनस्को भवन् भुवमालिलिङ्गत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥१२॥ स्रवद्रवेण स्थपुटेन चोरसः कृतेन लोकमलयोद्भवैधसः । नृपस्य सन्तापमिवासहिष्णुना विभिन्नमाराच्छतशोऽमुनाधुना ॥१३॥
स्रवद्रवेणेत्यादि-तत्र लोकः परिचारकर्मलयोवैधसश्चन्दनकाष्ठस्य अवता प्रसरता द्रवेण स्थपुटेन सघननेन नपस्योरसो हृदयस्य मध्ये कृतेनामुनाधुना तत्रत्यसंतापमसहिष्णुनेव किलाराच्छीघ्रमेव शतशो विभिन्न विच्छिन्नत्वमङ्गोकृतमभूदित्युत्प्रेक्षालंकारः॥१३॥ किमेतदेतत्प्रतिबोधनत्वरा सुयष्टिवत्सम्पततोऽस्य सन्धरा। बभूव चित्तस्य गरुत्मतो जवे जनेषु सैवोद्गमनकहेतवे ॥१४॥
किमेतदित्यादि-तत्र जनेषु परिचारकलोकेषु किलेतरिक जातमेस्कि जातमिति यास्य प्रतिबोधनाय त्वरा शीघ्रता सास्य सम्पततो निपातं गच्छतः सुयष्टिवत् सन्धराऽवधारणकारिणी बभूव । सैवास्य चित्तस्य गरुत्मतः पक्षिणो जवे बेगे गमनैकहेतवे प्रत्युत शीघ्रगमनकारणाय बभूव ॥१४॥
सुलोचना और दूसरी पृथिवी । मैं सदा सुलोचनाके साथ रहता हूँ, अतः पृथिवीके मनमें क्रोध उत्पन्न हो गया कि सुलोचना जैसी युवतीको पाकर मुझ जैसी वृद्धाविशाल (पक्षमें वृद्धावस्थाको प्राप्त ) को भूल ही गये हैं, उसके सामने मेरी क्या गिनती है ? इस तरह सान्त्वना देनेके लिये उन्होंने कुपित पृथिवी रूप स्त्रीका अनन्य मन होकर मानों आलिङ्गन किया था ॥१२॥
अर्थ-वहाँ परिचारक लोगोंके द्वारा राजाके हृदय स्थल पर चन्दनकी लकड़ीका पतला एवं गाढ़ा-गाढ़ा जो लेप लगाया था वह उनके संतापको मानों सहन नहीं कर सकता था, इसलिये उसने शीघ्र ही उस समय संतापको शतशः छिन्न भिन्न कर दिया था ॥१३॥ ___अर्थ-परिचारक लोगोंमें 'यह क्या है ? यह क्या है ?' इस तरह जाननेकी जो त्वरा-शीघ्रता थी वह पड़ते हुए राजाको अवलम्बन देने वाली लाठीके समान थी, अर्थात् परिचारक लोगोंकी तत्परताने राजाको नोचे नहीं पड़ने दिया परन्तु परिचारक लोगोंको त्वरारूप लाठीसे इस राजाके चित्तरूपी पक्षीको वेगसे उड़ाने में कारण हो गई, अर्थात् राजाको नीचे पड़नेसे तो रोका जा सका पर उनके चित्तकी चेतनाको नहीं रोका जा सका।
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