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१०-१२] प्रयोविंशतितमः सर्गः
१०५७ दस्योपरि सम्प्रापितस्तत्र स्वत एव यौवतेन युवतीनां समूहेन सेवितोऽभित: परिवारितस्सन् सुखेन रराज जयो नाम जयकुमारः ॥९॥ नभासदां तं विचरन्तमुज्ज्वलं विहायसा व्योमरथं विलोकयन् । प्रभावतीत्युक्तवचा विचक्षणो मुमूर्च्छ जातिस्मरणं जयो वजन् ॥१०॥
नभःसवामित्यादि-जयस्तत्र विहायसा गमनमार्गेण विचरन्तं नभःसदा खेचराणां व्योमरथं विमानं विलोकयन् स विचक्षणो विचारशीलः प्रभावतीत्युक्तं वचो वचनं येन स जातिस्मरणं पूर्वजन्मनः स्मरणं वजन सन् ममूर्छ मूर्छामवाप ॥१०॥ जयोऽथ जातिस्मृतिमेव तां प्रियामलब्धपूर्वामिव सुन्दरीं श्रिया। उपेत्य रन्तुं परदाभिदा हिया बभार मूर्छामपि चावृतिक्रियाम् ॥११।।
जय इत्यादि-अथ जयस्स राजाऽलब्धपूर्वां प्राक्कदाप्यनुपलब्धां श्रिया चालौकिकानन्दरूपया सन्दरी मनोहरामत एवं प्रियां तां जातिस्मृतिमेवोपेत्य सम्प्राप्य रन्तुमिव च रमणेच्छुरिव किल ह्रिया त्रपया परदाभिदां यवनिकारूपां मूच्छी नामावृतिक्रियामपि बभार स्वीचकारेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥११॥ सुदृक्सदृक्षी युवति ह्य पेयुषः क्व मादृशी वृद्धतरेत्यही रुषः । स्थलं न वा स्यादिति वासनावशस्त्वनन्यचेता भुवमालिलिङ्ग सः॥१२॥
सुनित्यादि-स जयकुमारः सुवृशः सुलोचनायाः सवृक्षी तुल्यां युवतिमुपेयुषो लब्धवतो नपस्य मावशी वृद्धतरा विशालभावं प्राप्ता सैव स्थविरता मिता क्व गणनाया
से उज्ज्वल और स्त्रीसमूहसे घिरे हुए श्रेष्ठ राजा जयकुमार महलकी छत पर बैठे हुए सुखसे शोभायमान हो रहे थे ॥९॥
अर्थ-विचारशील जयकुमार वहाँ आकाश मार्गसे जाते हुए विद्याधरोंके विमानको देखकर जातिस्मरणको प्राप्त हुए तथा 'प्रभावती' यह वचन कह कर मूच्छित हो गये ॥१०॥ - अर्थ-जयकुमारने जाति-स्मृतिको क्या प्राप्त किया था, मानों अलब्धपूर्व सुन्दरी ही प्राप्त की थी। उसे पाकर रमण करनेके लिये मानो लज्जावश परदा रूप मूर्छाको स्वीकृत किया था। ___ भावार्य-यहाँ कविने जाति-स्मृतिमें सुन्दरीको तथा मू में पर्दाकी उत्प्रेक्षाकी है ॥११॥ ___ अर्थ-जयकुमार मूच्छित होकर पृथिवी पर जा पड़े, इस संदर्भ में कविने उत्प्रेक्षाकी है कि जयकुमारने विचार किया कि मेरी दो स्त्रियाँ हैं-एक
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