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________________ ८१-८२ ] द्वाविंशः सर्गः साधारणोऽपि लोक: कस्तूरिकां विवेद नाभितो भव उत्पत्तिर्यस्यास्तां मरुद्भिर्वायुभिरेव कृत्वा परिमलबहलतया शस्ताम् ॥ ८० ॥ जात्या वृत्तेनापि लसन्तौ सालंकारतया खलु सन्तौ । सार्द्धविरामाच्च जम्पती श्रीछन्दसी गुणेन सम्प्रति ॥ ८१ ॥ जात्येत्यादि - अत्रास्मिन् लोके सम्प्रति अधुना तो जम्पती सुलोचनाजयकुमारौ सन्तौ शुभरूपौ गुणेन धेर्याविना कृत्वा श्रीछन्दसी स्वतन्त्रौ यद्वा पूर्वोक्तरीत्या परस्परानुकूलस्वभावौ च भूत्वा छन्दसी वृत्रो इव यतस्तौ अलंकारः सहितौ केयूरादिभिर्यमका - विकालंकारैर्यथा श्रीछन्दसी शोभेते तथा तौ जात्या जन्मना वृत्त ेन स्वाचरणेन च लसन्तौ यथा छन्दसी जात्या वृत्तनेति, मात्रिक छन्दो जातिर्वणिक छन्दश्च वृत्तमिति । तथा तौ सार्द्धं सममेव विरामो विश्रामो ययोस्तौ, छन्दसोऽपि सार्द्धभागे विरामवत्ता भवत्येवेति ॥८१॥ जयः स्तम्भः अभ्यागतस्य जय इत्यादि - जयो नाम नृपो गार्हस्थ्यमेव सध गृहं तस्य गार्हस्थ्यसानो घृणारहितोऽघृणी पवित्रोऽपवित्रे घृणासद्भावाद् अविकलो वा स्तम्भ इव सुवृत्तत्वात् शोभनं वृत्तमाचरणं यस्य तत्त्वात् तथा स्तम्भोऽपि सुवृत्तो वर्तुलाकारो भवति । सा सुलोचना च १०४७ सुवृत्तत्वाद् गार्हस्थ्यसनोऽघृणी । विश्रान्त्यै सा छायेवोपकारिणी ॥८२॥ हैं जो नाभिभवा - मृगकी नाभिसे उत्पन्न है तथा मरुद्भिः - वायुके द्वारा प्रशंसित है, अर्थात् जिसकी गन्धको वायु दूर-दूर तक प्रसारित करती है ||८०|| अर्थ - इस समय जम्पती सुलोचना और जयकुमार गुणोंकी अपेक्षा श्रीछन्दरूप थे - स्वतन्त्र थे अथवा युगल छन्दके समान थे, जिस प्रकार छन्द जातिमात्रिक छन्द और वृत्त - वर्णिक छन्दोंसे सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार वह जम्पती - दम्पती भी जात्या - जन्मसे तथा वृत्तेन - सदाचारसे सुशोभित थे । जिस प्रकार छन्दयुगल सालंकारतया लसन्तौ - उपमारूपकादि तथा यमकादि अलंकारोंसे सहित होते हैं, उसी प्रकार उक्त जम्पती भी कटककुण्डलादि अलंकारोंसे सहित थे और जिस प्रकार छन्द युगल सार्द्धविराम - अर्धभागमें विरामविश्रामसे सहित होते हैं, उसी प्रकार जम्पती भी सार्द्धविराम - साथ-साथ होने वाले विश्राम सहित ये ॥ ८१ ॥ Jain Education International अर्थ - पवित्र जयकुमार गृहस्थ धर्मरूपी घरके सुदृढ़ स्तम्भ थे, क्योंकि जिस प्रकाश स्तम्भ सुवृत्त—गोल होता है, उसी प्रकार जयकुमार भी सुवृत्त - सदाचारसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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