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________________ १०४६ जयोदय-महाकाव्यम् [८० तामित्यादि-वाथ वारिषु वैरिषु संचवें स्वरतया विहतुं तां सुलोचना मुच्चस्तनो कुचावेव कुम्भौ यस्यास्तां धरन् धीवरो मतिमानभूत् । यद्वा सं तामुच्चस्तनावत्युन्नतो कुम्भौ यस्यास्तां धरन् अङ्गोकुर्वन् वारिषु जलप्रदेशेषु संचर्तु धीवरो वाशपुत्र इवाभूत् कुम्भाभ्यां जले ततुं सुशकत्वात् । तथा सुवासाः शोभनवस्त्रवान् स कलाघरे बुद्धिमति पुरुषे रुचिमाप, यद्वा तु चन्द्रमसि प्रेमपरोऽभूत् तदा सा को पृथिव्यां मुदा मोवेनाश्रिता रुचिरा रुचिमती एवं कौमुदैः कुमुदसमूहराश्रिता रुचिरा शोभनाभूत्, चन्द्रमसः कुमुदैः सह प्रबन्धत्वात् ॥७९॥ तं खलु विशेषकायानुमतं केशरमाहुः सुमनस्सु हितम् । नाभिभवां च मरुद्भिः शस्ता कस्तूरिकां विवेद जनस्ताम् ॥८॥ तमित्यादि-विशेषेण सामुद्रिकशुभलक्षणलक्षितेन कायेनानुमतमत एव सुमनस्सु मनस्विलोकेषु हितं कल्याणकारिणं यद्वा विशेषकाय तिलकाय नामानुमतं मानितं सुमनस्तु कुसुमेषु हितं प्रशस्तं तं जनाः केशरमित्याहुः खलु के मस्तके शरं दधिसारमित्याहुमङ्गलकरं केशरं कुङ्कुम चाहुर्मनुष्या जयकुमारं तथा तां सुलोचनां च न विद्यते कथमप्यभिभवः पराभवः सौन्दर्यादिगुणेषु यस्यास्तामेवं मरुद्भिर्देवैरपि शस्तां प्रशंसनीयां जनः सर्व अर्थ-अथवा अरिषु-शत्रुओंके बीच अच्छी तरह विचरण करनेके लिये उन्नत स्तनरूप कलशसे युक्त सुलोचनाको स्वीकृत करने वाले जयकुमार धीवर थे-बुद्धिमान् थे अथवा वारिषु-जलमय प्रदेशोंमें अच्छी तरह गमन करनेके लिये बड़े बड़े कलशोंसे युक्त सुलोचनाको स्वीकृत करने वाले जयकुमार धीवर-ढीमर थे, क्योंकि ढीमर लोग नदी पार करनेके लिए बड़े कलशोंका उपयोग करते हैं। अथवा सुवासाः-उत्तम वस्त्रोंसे युक्त जयकुमार जब कलाधर-बुद्धिमान् मनुष्यमें रुचिको प्राप्त होते थे तब वह सुलोचना कौमुदाश्रिता-पृथिवीमें हर्षका आधार हो रुचिरा-उनकी रुचिको बढ़ाने वाली होती थी अथवा जब जयकुमार कलाधर-चन्द्रमामें रुचिको प्राप्त होते थे तब वह कौमुदाश्रिता-कुमुदसमूहसे आश्रित हो रुचिरा-कान्ति प्रदान करने वाली-चाँदनी हो जाती थी॥७९॥ अर्थ-विशेषकायानुमतं-विशिष्ट शरीरसे सहित अत एव सुमनस्सु हितं मनस्वी लोगोंमें कल्याणकारी उस जयकुमारको लोग उस केशर-कुडकुमस्वरूप कहते हैं जो विशेषकायानुमतं-तिलकके लिये स्वीकृत है तथा सुमनस्सु हितंसमस्त पुष्पोंमें हित-श्रेष्ठ है । इसी प्रकार सब लोग नाभिभवां-पराभवसे रहित और मरुद्भिः शस्तां-देवोंके द्वारा प्रशंसित सुलोचनाको उस कस्तूरी रूप कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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