SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८-७९] द्वाविंशः सर्गः १०४५ प्रभावमाप तदा सा विशिष्टो यः प्लवस्तस्य वधूः स्वरेण सहजेनैवाभूत् । एवं च पुनर्यदा सोऽरित्रस्य नौनिर्वहणकाठस्याख्यानपरोऽभूत्तदा सापि कर्णधारकत्वं नौसञ्चालकत्वमेवोररीकृतवती ॥७७॥ तरणिर्नवप्रभावत्वेन स सा भुवनमानिनी गुणेन । जडधीतिविधाकरः स सुमना अपि सा सुसज्जनौकास्तवना ॥७८॥ तरणिरित्यादि-स जयदेवो नवो नवीनोऽद्भुतप्रभावस्तेजो यस्य तस्य भावेन तथैव नवा तरुणा पूर्णा या प्रभा तद्वत्वेन वा कृत्वा तरणिः सूर्य एवाभवत्तदा सा सुलोचना भुवनस्य विश्वमात्रस्य मानिनी सम्माननीया गुणेन शीलादिना कृत्वाभूत् । यदा स सुमनाः शोभनमानसो जडधीभ्यो मूर्खजनेभ्य ईतेविधां करोतीत्येवं शीलोऽभवत्खलु मूर्खलोकनिवारकोऽभूत्तदा सापि सुसज्जनानां साधुपुरुषाणामोकसः स्थानस्य स्तवनं यस्यास्सा प्रशस्तस्थानप्रशंसाकरी बभूव । किञ्च यदा स तरणिर्जलयानमभूत् तदा सा भुवनस्य जलस्य मानिनी मानवती भूत्वाथ यदा स जलधिरित्येवंविधाकरोऽभूत्समुद्रभावमाप तदा सा सुसज्जा प्रशस्ता नौका यस्यैवंभूतं स्तवनं यस्या ईदृशी जातेति ॥७८॥ तामुच्चस्तनकुम्भां च धरन् स चतुं वारिषु धीवरः । कलाधरे रुचिमाप सुवासाः कौमुदाश्रिताभद्रुचिरा सा ॥७९॥ विषयमें प्रभावको प्राप्त होते थे तब वह विप्लववधू-विप्लव-उपद्रवको दूर करने वाली विशिष्ट आपत्कालीन लघु नौकाकी परिणतिको प्राप्त होती थी, और जब वह अरित्र-पतवार संज्ञाको प्राप्त होते थे तो कर्णधारकत्व-दिशानिर्देशक यन्त्रकी परिणतिको प्राप्त होती थी । तात्पर्य यह है कि वह सदा पतिके अनुकूल रहती थो ॥७७॥ . अर्थ-जब वह जयकुमार नवप्रभावत्वेन-नूतन प्रभावसे युक्त होने अथवा नूतनप्रभासे सहित होनेके कारण तरणि-सूर्य होते थे तब वह सुलोचना अपने शीलादि गुणोंके द्वारा भुवनमानिनी-समस्त संसारमें सम्मान प्राप्त करने वाली होती थो। जब जयकुमार मूर्खजनोंसे पृथक्करण करनेवाले सुमन-अच्छे विचारक विद्वान् होते थे तब वह सुसज्जनौकस्तवना-उत्तम सज्जन पुरुषोंके स्थानमें स्तवन-प्रशंसासे सहित होती थी। जब जयकुमार तरणि-जलयानजहाज रूप होते थे तब वह गुणेन-शोलादि गुणरूपी गुण-रस्सीके द्वारा भुवनमानिनी-जलके प्रमाणको जानने वाली होती थी और जब वह जडधि- जलधिसमुद्रभावको प्राप्त होते थे तब वह सुसज्जनौकास्तवना-सुव्यवस्थित नौकाकी कीतिको प्राप्त होती थी ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy