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________________ ७४-७६ ] द्वाविंशः सर्गः १०४३ भिषेक्तु नाप तावदेवेत ईश: स्वामी प्राणप्रियः स आनन्दाश्रुभिः स्नातो जातोऽभव खलु ॥७३॥ मध्यस्थोऽसिर्वाशय आसीत् सम्प्रति सत्कृतयशसां राशिः । भुवो भाविते सुगुणादर्शे हितमनुचिन्तयतो राजर्षेः ॥७४॥ मध्यस्थ इत्यादि - भुवः पृथिव्या भाविते सन्मानिते सुगुणनामादर्श वर्पणरूपे श्रीपरमेष्ठिनि हितमनुचिन्तयतो राजर्षेः श्रीजयकुमारस्य सम्प्रत्यधुना सत्कृते पुण्यकर्मणि यानि यशांसि तेषां राशिः शयो हस्तोऽसिरिव मध्यस्थः शत्रुसद्भावाभावात्, अधुना यथासिरपि मध्यस्थस्तथा हस्तोऽपि मध्यस्थ एव, परमात्मचिन्तननिमग्नत्वात् ॥७४॥ सुगुरुतरोरोजयोर्भरेण मा त्रुटचतु मध्यः स्विदनेन । सुगुरूरुकसन्धृतानुबन्धं सास्य कक्षया व्यधात् प्रबन्धम् ॥७५॥ सुगुवित्यादि - अनेन सुगुरुतरयोरु रोजयोः स्तनयोर्भभरेण कृत्वायं मध्यो यः स्वभावत एव कृशीयान् स मा त्रुटधतु स्विवित्यभिप्रायवतीव सा सुलोचना सुगुरुभ्यामूरुकाभ्यां सन्तोऽनुबन्धो यत्रैतादृशं प्रबन्धं कमया काञ्च्या कृत्वाऽस्य मध्यस्य व्यधात् कृतवती ॥७५॥ ॥ रात्रौ राज्ञि तु कैरविणी या सस्मिता मधुरसा रमणीया । सालिजने किमु मुद्रणमगात् पद्मिनीति च दिनेऽहो सुभगा ॥ ७६ ॥ पर पानी उछालनेके लिये अपना दोन-शक्तिहीन हाथ उठाया, परन्तु स्तनोंकी अत्यन्त स्थूलताके कारण वह उन तक नहीं पहुँच सका, फिर भी वे हर्षके आँसुओंसे स्वयं नहा लिये ||७३ || अर्थ - पृथिवी से सन्मानित उत्तम गुणरूप दर्पण में हितका चिन्तन करनेवाले राज जयकुमारका वह शय- हाथ, जो कि पुण्य कार्योंसे उत्पन्न यशकी राशि के -समान जान पड़ता था, तलवारके समान मध्यस्थ हो गया था, अर्थात् शत्रुओं के न होनेसे जिस प्रकार तलवार मध्यस्थ हो गई थी, उसी प्रकार उनका हाथ भी मध्यस्थ हो गया था । यहा 'वाशय' का वा आशय ऐसा पदच्छेद करनेपर यह अर्थ भी ध्वनित होता है कि आत्महितका चिन्तन करनेवाले जयकुमारका आशय-अभिप्राय मध्यस्थ हो गया था ||७४ || अर्थ- -इन अतिशय स्थूल स्तनोंके भारसे कहीं मध्यभाग टूट न जावे इसलिये सुलोचनाने मेखला के द्वारा उसका अतिशय भारी जांघोंके साथ मजबूत बन्धन कर दिया था, अर्थात् मेखलारूप रस्सीके द्वारा मध्यभाग को स्थूल जांघोंके साथ बद्ध कर दिया था ।। ७५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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