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१०४० जयोदय-महाकाव्यम्
[६७-६८ दुराचारिसमूहे तु पुनर्दण्डधरो दण्डनीतिपरायणो यथोचितवण्डं दत्त्वा सुविधाकरो दण्डधरश्च यमो नाम दक्षिणदिक्पालः, एवमेवाथ पुनः शतशोऽनेकधा ऋतुं यज्ञमेतुं कर्तुं तत्परो भगवदुपासनापरायणोऽसौ शतक्रतुर्नामेन्द्रः पूर्वदिक्पालश्च बभूव । समुद्देश: श्लेषश्च ॥६६॥
वीणावती स्वरेण सतोरीकृता तथा सा स्मितेन गौरी ।
हरिणीदृशेत्यादृताप्सरसां चयेनाधरीकृतामृतरसा ॥६७॥ वीणावतीत्यादि-सा सुलोचना सता श्रीमता जयकुमारणोरीकृता स्वीकृता या स्वरेण कण्ठरागेण कृत्वा वीणावती वीणातुल्यस्वरत्वात् वीणावती नामाप्सरा वा बभूव, तथा स्मितेन मन्दहास्यप्रसादेन कृत्वा गौरी गौरपरिणामा गौरीनामाप्सराश्च, वृशानन्यसदृशा दृक्परिणामेन कृत्वा च हरिणी मृगी हरिणीनामाप्सराश्चेति अप्सरसां चयेन समूहेनावृतावतां नीता। अथ चाप्सरसा सजलसरोवराणां चयेनादृतापि अधरीकृतो निरादरतां नीतोऽमृतस्य रसो यया किञ्चाधरीकृत औष्ठभावं नीतोऽमृतरसो यया साधरीकृतामृतरसाभूत् । पूर्वोक्त एवालङ्कारः ॥६७॥
सकलसन्निधिपो यदाऽरादप्सरोमयीडितेन वारा । सुधारान्वयेऽस्मिस्तु सुधाराधरे वाप्यभूत् प्रमोदसारा ॥६८॥ सकलेत्यादि-यदा नृपो जयकुमारः सकलानां सतां सभ्यानां मध्ये निषिः शिरो
अपराधियों-दुराचारियोंके समूह पर दण्डधरा-दण्डनीतिको प्रचलित करनेवाला था ( पक्षमें दण्डधर-यम नामका दक्षिण दिशाका दिक्पाल था) और शतशः क्रतुमेतुं सैकड़ों यज्ञ करनेके लिये तत्पर होनेसे शतक्रुतु-कहलाता था (पक्षमें शतक्रतु-इन्द्र नामक पूर्वदिशाका दिक्पालक था । इस तरह वह अपने कार्यकलापसे चारों दिशाओंमें विजय प्राप्त करनेसे विजेता कहलाता था ॥६६।।।
अर्थ-श्रीमान् जयकुमारने उस सुलोचनाको स्वीकृत किया था, जो स्वरकण्ठ सम्बन्धी रागसे वीणावती-वीणाके समान स्वर वाली थी (पक्षमें वीणावती नामकी अप्सरा थी), मन्द-हास्यसे गौरी-गौरवर्ण थी (पक्षमें गौरी नामकी अप्सरा थी) और दृष्टिसे हरिणी-मृगी थी (पक्षमें हरिणी नामकी अप्सरा थी)। इस तरह अप्सराओंके समूहके द्वारा आदर्शताको प्राप्त हुई थी । अथवा अप्सरसां चयेन-सजल सरोवरोंके समूहसे आदृत होने पर भी उसने अमृतरस-सुधाके स्वादको अधरीकृत-निरादर भावसे युक्त किया था अथवा अमृत रसको उसने अधरौष्ठरूपमें परिणत किया था ॥६७।।
अर्थ-राजा जयकुमार जब समस्त सभ्य जनोंमें शिरोमणि रूप हुए थे, तब
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