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________________ ६५-६६ ] द्वाविंशः सर्गः १०३९ उरीकृतापि भुवमलंचक्रे वक्रभूः किल विधाववके । सर्वाशाभासामीशेन साशातीतमधुरिमा तेन ॥६५॥ उरीकृतेत्यादि-सा आशामत्येतीति आशातीतः पराकाष्ठां गतो मधुरिमा माधुर्य यत्र साशातीतमधुरिमा सुलोचना सर्वाश्च ता आशा अभिलाषाः सद्वाञ्छा स्तासां भासो विकाशास्तेषामोशेन यद्वा सर्वासां भासामोशेनेति पाठमाश्रित्यात्यन्तदीप्तिमता तेन जयकुमारेणोरोकृता स्वीकृतापि भुवं पृथिवीमलंचक्र भूषयामास। इत्यत्र तेनोरीकृतोरसि. न्यस्तापि भुवमलंचक्र इति विरोधाभासः। सा चावक्रः सरलो यो विधिराचारस्तस्मिन् प्रशंसनीयाचारे वक्र ध्रुवौ यस्यास्सा वक्रभूरिति विपरीतार्थः । तत्रावक्र: प्रशस्तश्चासौ विविरदृष्टश्च तस्मिन् भाग्योदये सतीत्यर्थः। सा वक्त्रभूः शोभनभ्रकुटोमती किलेति निश्चयेन । अनुप्रासो विरोधाभासश्चालङ्कारः ॥६५॥ जडलोकसुधारणे प्रचेता धनदो दीनजनाय विजेता । दण्डधरोऽपराधिवर्गे तु तत्परोऽथ शतशः क्रतुमेतुम् ॥६६॥ जडलोकेत्यादि-स विजेता जयनशीलो जयकुमारो जडाश्च ते लोका मूर्खजनाश्च तेषां सुधारणे मूर्खादमूर्तीकरणे प्रशंसनीयं चेतो यस्य सः, यद्वा जलस्य लोकः पानीयप्रदेशस्तस्य सुधारणे सुविधाकरणे च प्रचेता नाम पश्चिमदिक्पालो वरुणः, दीनजनाय निःस्वलोकायाभ्यागताय धनं ददातीति धनदो धनदो नाम कुबेरश्चोत्तरदिक्पालकः, अपराधिवर्गे अर्थ-अत्यधिक मधुरतासे सहित वह सुलोचना समस्त अभिलाषाओंके विकासके स्वामी अथवा समस्त दीप्तियोंके स्वामी राजा जयकुमारके द्वारा उरीकृता-अपने वक्षःस्थल पर स्थापित होकर भी पृथिवीको अलंकृत करती थी, यह विरोध है, क्योंकि जो जहाँ रहता है उसीको अलंकृत कर सकता है अन्यको नहीं । परिहार पक्ष में उरीकृता-का अर्थ स्वीकृता करने पर कोई विरोध नहीं होता। इसी प्रकार अवक्रविधि-अनुकूल शुभ आचारके रहते हुए भी वह वक्र~कुटिल भौंहों वाली बनती थी यह विरोध है । परिहार इस प्रकार है-वह अवक्र विधि-भाग्यके सरल अनुकूल होने पर भी स्वभावतः कुटिल भौंहों वाली थी॥६५॥ अर्थ-विजयशील जयकुमार जडलोकसुधारणे-मूर्ख जनोंका सुधार करने में प्रचेता-प्रशंसनीय चित्तका धारक था (पक्षमें जललोक-जलप्रदेशका सुधार करनेमें अचेता-वरुण नामक पश्चिम दिशाका दिक्पाल था), दीन-निर्धन जनोंको धनद-धन देने वाला था (पक्षमें धनद नामक उत्तर दिशाका दिक्पाल था)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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