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________________ १०३६ जयोदय-महाकाव्यम् [ ५८-६० न स्वप्नेऽपि हृदौज्झि कदाचिन्नतभ्रवः कथमस्तु स वाचि । कर्मणा तु विनयैकभुजापि व्यत्ययेन यज इत्यथवापि ॥५८॥ न स्वप्नेऽपीत्यादि-यो जयकुमारो नते नम्र भ्रुवौ यस्यास्तस्या नतभ्रुवो लज्जाशीलायाः सुलोचनाया हृदा मनसा स्वप्नेऽपि शयनविकल्पेऽपि नौज्झि न विस्मृतः, स एव तस्मा वाचि म्थमस्तु, अर्थात् सा जयदेवं मनसि सर्वदेवाचिन्तयत् किन्तु वाचा तस्य नामोच्चारणं न कदाप्यकरोत्, विनयमादरं भुनक्ति स्वीकरोति तेन विनयभुजा कर्मणा कार्येण तु पुनः यज इति व्यत्ययेन विपर्ययेणाथवा कृत्वापि स जय इत्येतस्य विलोमतायां यज इत्येव भवति, तस्मात्सा यजने तत्पराभूदिति । वक्रोक्तिरलंकारोऽत्र ॥५८॥ चलनमिहानुभूय गुणधामासनमाप सती राज्ञो वामा । अपि मुकुलितकलकमलललामा पधिनीव विनतयेऽभिरामा ॥५९॥ चलनमित्यादि-सा गुणानां धाम स्थानं यत्र सा गुणधामा सती राज्ञो जयकुमारस्यह भूतले चलनमनुभूय पश्चाद्भूत्वाप तस्य पृष्ठतो गमनकों बभूव तदीयाभिलाषानुसारेण चरणकारिणीवासीत् । तत एव तस्या वामा स्त्री भूत्वासनं स्थानमाप । किञ्च वामभाग एबासनमाप, अपि पुनर्मुकुलिते करावेव कमले ताभ्यां ललामा मनोहरा सती विनतये प्राथनार्थमभिरामा शोभनीया पधिनीव कमलिनीसदृशा बभूव ॥५९॥ विस्तृतचरितेऽम्बर इव तस्मिन् सद्गुणगणिनीव स्मितराशिः। जल इव तृडपहारिणीशे तु स्वादुतेव सासीद्रुचिहेतुः ॥६॥ अर्थ-लज्जाशील सुलोचनाने जयकुमारको स्वप्नमें भी नहीं छोड़ा था इसलिये वह उसके वचनोंमें कैसे आये ? अर्थात् वह हृदयमें जयकुमारका चिन्तन करती थी परन्तु वह उसके नामका उच्चारण कभी नहीं करती थी। लोकमें स्त्री पतिका नाम लेती भी नहीं है। परन्तु विनयशील सुलोचनाने यज इस क्रियाको विपरीत रूपसे जयके रूपमें ग्रहण किया था। यजका उलटा जय होता ही है ॥५८॥ अर्थ-वह सुलोचना इस जगत्में दया दाक्षिण्य आदि गुणोंका स्थान होती हुई राजा जयकुमारकी पदानुगामिनी हुई थी, अर्थात् उनकी इच्छानुसार आचरण करती थी। इसीलिये उनकी अवामा-अनुकूल हो अथवा उनकी स्त्री हो अथवा वामभागस्थ हो आसनको प्राप्त हुई थी। यही नहीं किसी बातकी प्रार्थना करनेके लिये जब वह अपने दोनों हाथ कमलकी बोंडीके समान करती थी, तब कुड्मलोंसे सहित कमलिनीके समान मनोहर दिखती थी ॥५९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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