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________________ ५६-५७ ] द्वाविंशः सर्गः सुरवरवंशम पूर्वख्याति वनमपि नवनन्दनं स्म भाति । पुण्यसदनमिव तयोः सदा वा दम्पत्योः सत्कृतैकभावात् ॥५६॥ सुरवरेत्यादि - तयोर्दम्पत्योर्वरवध्वोः सदा सर्वदैव खलु वनमपि किं पुनरुद्यानं सुकृतैकभावात् एकान्ततः पुण्यचेष्टितत्वात् पुण्यसदनं स्वर्गः, किञ्च पुण्यं पुनीतं च तत्सदनं च पुण्यसदनं तद्वत् सुरवरवंशं स्वर्गपक्षे सुरवराणां देवश्रेष्ठानां वंशो ज्ञातिसमूहो यत्र सदनपक्षे शोभनो रवः सुरवस्तं राति स्वीकरोतीति सुरवरः स चासौ वंशो यत्र तत् नवनन्वनं नवं मनोहरं नन्दनं नाम वनं यत्रेति स्वर्गपक्षे, गृहपक्षे पुनर्नवो नूतन: सद्यो जातो नन्दनः पुत्रो र्यास्मस्तत्, एवं कृत्वापूर्वा ख्यातिः प्रशंसा यस्यैवंभूतं भाति स्म ॥५६॥ १०३५ मीनमज्जुचक्षुषे सुवस्तु जीवनमेव सदा दधतस्तु । भूमिपतेः सा चासीन्नवला लोचनखज्जनाय चन्द्रकला ॥५७॥ मीत्यादि - मीनवन्मञ्जुमनोहरं चक्षुर्यस्यास्तस्यै सुलोचनायें एव खलु जीवनं प्राणं तं समादधतः सन्दधानस्य मीनस्य जीवनं जलमेव सर्वस्वं यतः भूमिपतेजयकुमारस्य लोचनमेव खजनइचकोरो यद्वा लोचनेन कृत्वा खजनो भवति तस्मै सा नवला नवयौवना बाला किच नूतनसंजाता चन्द्रस्य कला बभूव, खञ्जनस्य चन्द्रकलाप्रेमित्वात् ॥५७॥ अर्थ- उन दोनों वर वधूके सदा पुण्यशाली होनेसे वन भी पुण्यसदनस्वर्गके समान अथवा उत्तम भवनके समान जान पड़ता था, क्योंकि जिस प्रकार पुण्यसदन - स्वर्गं सुरवर वंश - श्रेष्ठ देवोंके समूहसे सहित होता है, उसी प्रकार उत्तम भवन भी सुरवरवंश-सु-र व वंश - उत्तम शब्दसे युक्त मुरलियोंसे सहित होता है, जिस प्रकार स्वर्ग - अपूर्वं ख्याति - अनुपम प्रसिद्धिसे सहित होता है उसी प्रकार भव्य भवन भी अपूर्व ख्याति - अभूतपूर्व प्रसिद्धि सहित होता है और जिस प्रकार स्वर्गं नवनन्दन - मनोहर नन्दन वनसे सहित होता है, उसी प्रकार भव्य भवन भी नव नन्दन - सद्योजात - नवीन पुत्रोंसे सहित होता है | भावार्थ - इष्टके संयोगमें वन भी सुखकारी मालूम होता है ॥ ५६ ॥ अर्थ - मीनके समान सुन्दर नेत्रों वाली सुलोचनाके लिये जयकुमार जीवन रूप सारभूत वस्तु थे, अर्थात् जिस प्रकार मीनके लिये जीवन-जल सार वस्तु है उसी प्रकार जयकुमारके लिये सुलोचना जीवन प्राण स्वरूप थी और वह सुलोचना जयकुमारके नेत्ररूपी चकोर पक्षीके लिये चन्द्रकला रूप थीं । भावार्थ- वर-वधू दोनों ही एक दूसरे के लिये प्राणतुल्य प्रिय थे ||१७|| ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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