________________
१०३४
जयोदय-महाकाव्यम् खदिरस्य नाम वृक्षविशेषस्य सार इव सारो यस्मिन् स खदिरसारस्सुदृढावयवीत्यर्थः । द्वयोः समाहारो द्वयो सा गदरहितमगदं नैरोग्यमेव लक्षणं स्वरूपमुदारं महत् तदाप्त्वा समुदितप्रमाणा प्रस्फुटप्रशंसावती सती सत्पुरुषाणां मुखमण्डनायाभूत् । सन्तस्तयोः प्रशंसामेव चक्रुरिति न किमिति काक्वर्थसंप्रत्ययः । तथा सुधावा चूर्णस्थानीया 'कलई"ति नाम, स च ग्वदिरसारः कत्थेति नाम तव यो योग्यप्रमाणोपेता नागदलं नागवल्लीपत्रं तस्योदारं क्षणमाप्त्वा ताम्बूलभावेन सत्पुरुषाणां मुखमण्डनाय भवत्येव ॥५४॥
श्रीहरेरुरसि शर्मापश्यत् सार्द्धभाव उमयापि मुडस्य । सातमाप सरिदम्बुधितुल्यं तत्त्वमत्र खलु जीवनमूल्यम् ॥५५॥
श्रीरित्यादि-श्रीलक्ष्मीः सा हरे कृष्णस्योरसि केवलं हृदय एव वासं कृत्वा शर्म सुखमपश्यत्, तथोमया पार्वत्या मृडस्य महादेवस्यार्द्धन सहितः सार्द्धः स चासो भावश्चापि प्राप्तः। सा तमर्द्धणरिणामेनैवाङ्गीकृतवती न पुनः सर्वात्मना। किन्तु सा सुलोचना तं. जयकुमारं तन्मयत्वेनातिशयस्नेहवती भूत्वाप भेजे। यथा सरित् नदी अम्बुधिमनन्यभावेनावाप्नोति । अत्र खलु जीवनं प्राणार्पणमेव मूल्यं नदीपले जीवनं जलम् । परस्परमद्वितोयप्रेमभावस्तयोरिति ॥५५॥
जयकुमार खदिर वृक्षके सारभागके समान सुदृढ़ शरीर वाले थे। समुदित प्रमाण-स्पष्ट प्रशंसासे युक्त यह दोनों नोरोगता रूप उदार लक्षणको प्राप्तकर सत्पुरुषोंके मुखके आभूषण क्या नहीं हुए थे क्या सब लोग उनकी प्रशंसा नहीं करते थे? अवश्य करते थे।
अर्थान्तर-सुलोचना सुधा-कलई रूप थो और जयकुमार कत्था रूप थे, अतः दोनों ही उचित मात्रामें नागदलक्षण-ताम्बूलके उदार क्षणको पाकर क्या सत्पुरुषोंके मुखकी शोभा बढ़ाने वाले नहीं हुए थे ? अवश्य हुए थे। कत्था और चूनाके उचित संयोगसे निर्मित ताम्बूल-पान मुखकी शोभा बढ़ाता ही है ॥५४॥
अर्थ-लक्ष्मीने श्रीकृष्णके वक्षःस्थल पर निवासकर सुखका अनुभव किया था और पार्वतीने शङ्करके अर्द्धाङ्गभावको प्राप्त किया था। सुलोचनाने जयकुमारको उस तरह प्राप्त किया था जिस प्रकार कि नदी समुद्रको प्राप्त करती है । भाव यह है कि जिस प्रकार नदी अपने जीवन-जलको समुद्रमें तन्मयीभावसे अर्पित कर देती है, उसी प्रकार सुलोचनाने अपना जीवन उसके साथ एकरूप कर दिया था ॥५५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org