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१०२८ जयोदय-महाकाव्यम्
[४४-४५ कीदृशी सती सा, कुसुमलं वासो यत्र तं कुसुमलवासममाश्रयं रक्तवस्त्रमयमाश्रयमित्यर्थः । यद्वा कुसुमं लातीति कुसुमलः स चासौ वासो निवासस्तत्समाश्रयं परिवधती सा स्मरः सविशेषो यस्यां स्मरसविशेषा कामोत्पत्तिकर्तीति ।।४३॥ मध्यमवृत्तितया करमाप भुवनावधुनासकावपापः । कौतुकेन महता मुहुरध्याश्रिता सता समभूच्च विमध्या ॥४४॥
मध्यमेत्यादि-असको जयकुमारोऽपापः पापवजितोऽधुना भुवनाद् लोकमध्यात्, यद्वा जलाद मध्यमवृत्तितया करमाप नाधिकभावेन षष्ठांशं जग्राह । यद्वा मध्ये मकारो यस्य तं करं कमरं (कमल)मिति यावत् । तदा महता कौतुकेन मुहुरध्याश्रिता वारंवारमुपढौकिता सता सा विमध्या मध्यवर्वाजता कृशावलग्नाऽथवा विकारो मध्ये यस्याः सा विमध्यार्थात् किल सविताभूत् कमलेन सह सवितुः सम्बन्धात् तथा सव उत्सवस्तद्वत्ता सवितेति यावत् ॥४४॥ मदनद्रुतत्वमभवच्च यतः सदापि कान्तामनुगम्य सतः । न कामधुरता बभावुदारात्र कामधुरतामवाप सारात् ॥४५॥
मदनद्रुतत्वमित्यादि-सदापि सर्वदैव कान्तामनुगम्य यतो हेतुतः सतो जयकुमारस्य मदनद्रुतत्वं कामेन कृत्वा द्रुतत्वं द्रवीभूतत्वमभवत् तदा पुनरत्र सुलोचनायां का
भावसे इन्द्रपुत्र जयन्तके तुल्य थे। यह सुलोचना जब कुसुमानी रङ्गके रंगीन वस्त्रको धारण करती अथवा पुष्पावलीसे विभूषित आश्रय निकुञ्ज आदिको. प्राप्त करती तब जयकुमारकी कामस्फूर्तिका विशेष कारण होती थी ।।४३।। ____ अर्थ-इस समय पापरहित जयकुमारने भुवनतः-लोगोंसे मध्यम वृत्तिका राजस्व ग्रहण किया था अथवा भुवनतः-जलसे जिसके बीच में 'म' है ऐसा कर अर्थात् कमर, र और ल में अभेदके सिद्धान्तसे कमल-ग्रहण किया था । सतासज्जन जयकुमारके द्वारा पुनः पुनः प्राप्तकी हुई विमध्या-पतली कमर वाली सुलोचना वि है मध्यमें जिसके ऐसी सता अर्थात् सविता हो गई थी, कमलके साथ सूर्यका मैत्रीभाव होनेसे कमल पुष्पको धारण करने वाली सुलोचना भी सविता कहलाने लगी थी अथवा (सब उत्सवो विद्यते यस्य स सवी सविनी वा, तस्य तस्या वा भावः सविता, स्त्रीपक्षे पुंवद्भावः) सविता-उत्सव रूप हुई थी।॥४४॥ ___ अर्थ-यतश्च सदा ही कान्ता-सुलोचनाको प्राप्त कर सतः-जयकुमारमें मदनद्रुतत्व कामसे द्रवीभाव होता था, अतः सुलोचनामें का मधुरता-कौन सी
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