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जयोदय-महाकाव्यम्
[ ३४-३५
रिपुः पक्षे खरा तीक्ष्णा रुचिः कान्तिर्यस्य तस्य सूर्यस्य रिपुर्तित सम्प्रति वर्तमानकाले न सता परिवारिताङ्गीकृता वारा सुलोचना सा सुष्ठु मध्यो यस्याः सा सुमध्याऽय च शब्दापेक्षया सुकारो मध्ये यस्यास्सा सुमध्या वाराऽर्थात् वासुरा नाम रात्रिबंभूव या संकुचतः. सुस्तनेन कृत्वा कुड्मलादुदाराऽभूत्, पक्षे पुनः संकुचतः संकोचमनुभवत: कुड्मलाबुदाराभूत् ॥३३॥
मदनप्रेमसदनयोः साम्यात् संभोक्तुं त शशाक भिदांवा ।
सन्दधार साध्वी द्वयमेषा कुचयुगपदिहृदि सा परिशेषात् ||३४|| मदनेत्यादिद- एषा सुलोचना या मदनश्च प्रेमसदनं प्रियश्च तयोर्भवनप्रेमसवनयोः परस्परं साम्यात् समानभावात् भिदां संभोक्तु न शशाक भवं कर्तुमनहभूत् । सा साध्वी परिशेषादर्थापत्या कुचयुगमेव पदं स्थानं यत्र तत् कुचयुगपदि कुचयुगपदि यद्वयं तस्मिन् द्वयं द्वितयमेव मदनं स्वप्रियं चेति युगलमपि सन्दधार ॥४३॥
यद्यपि सासीन्महिषी शस्ता नावश्यककर्मणि परहस्ता । देवत्युदितापि निजे हृदये स्वां राज्ञीं नान्वभूद् गुणमये ||३५|| यद्यपीत्यादि - यद्यपि सा शस्ता प्रशंसनीया महिषी पट्टराज्ञी आसीत् संजाता
प्रीतिसे विरुद्ध थे ( पक्षमें खररुचिरिपु-सूर्यं के विरोधी थे ) इस समय उन जयकुमारके द्वारा स्वीकृत सुमध्यमा - सुन्दर मध्यभागवाली वारा - सुलोचना मध्यमें सुलगा देवासुरा - रात्रि हो गई थी और तब संकुचतः - अपने समीचीन स्तनों की अपेक्षा वह कुड्मल - कमलकी बोंड़ीसे उत्तम थी (रात्रि पक्ष में संकुचत:निमोलित होते हुए कुड्मलसे उत्तम थो, अर्थात् रात्रिके कुड्मल संकुचित हो रहे थे, जब कि सुलोचनाके स्तनरूप कुड्मल संकुचित नहीं थे । भाव यह है कि यदि जयकुमार चन्द्रमा हुए थे तो सुलोचना रात्रि हुई थी ||३३||
अर्थ – यह सुलोचना काम और जयकुमारमें समानता के कारण भेद करने में समर्थ नहीं हो सकी थी, इसीलिये वह पतिव्रता स्तनयुगल के स्थानसे सहित हृदय में अर्थापत्ति से दोनोंको धारण करती थी ||३४||
भावार्थ - जयकुमार और कामदेव दोनों एक समान सुन्दर थे, इसलिये सुलोचना दोनों में यह भेद नहीं कर सकी कि इनमें काम कौन है और पतिजयकुमार कौन है ? अतः वह एक समान रूपको धारण करने वाले स्तन युगल के स्थानभूत हृदय - वक्षःस्थलमें स्तनयुगलके व्याजसे दोनोंको धारण करती थी ||३४||
अर्थ - यद्यपि वह पट्टरानी थी, तथापि भगवत्पूजा आदि कार्योंमें पराधीन १. वासुरा वासितायां स्यान्निशाभूम्योश्च वासुरा' इति विश्व० ।
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