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________________ १०२३. ३२-३३ ] द्वाविंशः सर्गः अभ्यन्तररुचाऽभवत् स पुषः स्थानमिहास्मत्कवचनवपुषः । अङ्गमाप्य नान्तलक्षणं सा रेजे गुणगुम्फितप्रशंसा ॥३२॥ अभ्यन्तररुचेत्यादि-स जयकुमार इहास्मिल्लोकेऽस्मत्कं यवचनं तदेव वपुः शरीरं यस्य तस्य पुषः पोषणार्थकस्य धातोरभ्यन्तरस्य मनसो या रुक् रुचिस्तया कृत्वा स्थानमभवत् । यद्वाभ्यन्तरे मध्ये रुकारो यस्य पुष इति धातोः शब्दस्य तत्तादृक् स्थानमभूत् पुरुषः सोऽभूदित्यर्थस्तदा सा गुणगुम्फिता प्रशंसा यस्यास्तादृशी सती न विद्यन्तेऽन्ती यस्यैतादृशं लक्षणं स्वरूपं यस्य तवङ्गं सर्वमनोहरमाप्य रेजे । यद्वा नाकारो विद्यतेऽन्ते यस्य तन्नान्तं लक्षणं यस्यैतादृशमङ्गमिति शब्दमाप्य साङ्गना नाम रेजे शुशुभे ॥३२॥ क्षत्रपोऽभवन्नादिमतेन खररुचिरिपुरिति सम्प्रति तेन । परिवारिता सुमध्या वारा संकुचत: कुडमलादुदारा ॥३३॥ क्षत्रप इत्यादि-यो जयकुमारो ना पुरुषः स आविमतेन श्रीपुरुदेवस्याभिप्रायेण कृत्वा क्षत्रपोऽभवत् क्षत्रियाणां शिरोमणिरभूत् । किं वा नकार आदौ प्रथममिति मतेन कृत्वा नक्षत्रपः शशी समभूत्, यतः खररुचिरिपुः खलस्य रुचि: प्रीतिः खररुचिस्तस्या अर्थ-वह जयकुमार इस लोकमें अपनी हार्दिक रुचिसे पोषणार्थक पुष धातुका पञ्चम्यन्त स्थान अथवा जिसके बीच में 'रु' है ऐसा पुष अर्थात् पुरुष हुआ था और सुलोचना अनन्त लक्षणोंसे युक्त अङ्ग-शरीरको पाकर सुशोभित हो रही थी अथवा जिसके अन्तमें 'ना' है ऐसे अङ्गको प्राप्त कर अङ्गना-स्त्रीरूपमें सुशोभित हो रही थी ॥३२॥ - भावार्थ-पोषण अर्थमें पुष्-धातु आतो है उससे क-पञ्चमी विभक्तिका इम्स्-प्रत्यय लाने पर एकवचनमें पुषः बनता है । इस पुषः के बीचमें यदि 'ह' का संयोजन कर दिया जाय तो पुरुष शब्द बन जाता है और अङ्ग शब्दसे प्रशस्त अर्थमें मत्वर्थक ना प्रत्यय कर दिया जाय तो अङ्गना शब्द बन जाता है। इस तरह जयकुमार धातु-क्रिया रूप थे और सुलोचना शब्दरूप थी। क्रिया और शब्द जिस तरह परस्पर सापेक्ष रहते हैं, अर्थात् क्रियाके बिना शब्दका उपयोग नहीं होता और शब्दके बिना क्रियाका उपयोग नहीं होता, उसी तरह जयकुमार और सुलोचना दोनों सापेक्ष थे। अर्थ-जो ना-पुरुष जयकुमार आदिनाथ भगवानके द्वारा स्थापित वर्णव्यवस्थाके अनुसार क्षत्रप-क्षत्रियशिरोमणि थे, वे ही इस समय आदिमें 'न' लगा देनेसे नक्षत्रप-चन्द्रमा भी थे, क्योंकि वे खलरुचिरिपु-दुष्ट मनुष्योंकी १. 'मिह स्म कवचनवपुषः' इति पाठो भवितुमर्हः 'स्म' पादपूर्त्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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