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________________ [३१ १०२२ जयोदय-महाकाव्यम् सहिता लक्ष्मीर्वा रतिर्वा सुलोचना वृशश्चक्षुषस्तारेव कनीनिकातुल्या जगतो य आनन्वः प्रमोवस्तस्य समुतयेऽभ्युद्धरणाय सदेशा समानदेशा सदा सर्वदा ईशा समर्था वाभूत् । यथा जगदालोकनेनानन्ददात्री नयनस्य तारेव, तया विनावलोकयितुमशक्यत्वात्तथा सुलोचना जयस्यानन्ददात्री । 'कुवलं तूत्पले मुक्ताफलेऽपि बदरीफले' इति विश्वलोचने ॥३०॥ अजवपुषा गोपिता तथा या महिषो कामधेनुतां साऽयात् । अविकालहृदामुना यदापि अविनीता सा कुतः कदापि ॥३१॥ अजवपुषेत्यादि-अजवं पुष्णातीत्यजवपुस्तेनाजवपुषा अथवाजस्य छागस्य वपुः शरीरं यस्य तेनाजवपुषा जयकुमारेण गोपिताङ्गीकृता या महिषी पट्टराशी सुलोचना महिषी रक्ताक्षिकापि कामधेनुतामयात् वाञ्छितकी बभूव गोरूपतां चागात् । तथावेर्नाम मेषस्य काल इव हृद् यस्य तेनाविकालहृदा, अथ रलयोरभेदाविकारं विकारजितं हृद् यस्य तेन शुखमनसेति यावत् । अमुना जयेन यदा पुनरापि प्राप्त सा पुनरविनीता विनयवजिता, अविना नीता प्राप्ता कुतः कदापि भवेत् खलु ? नैव भवेत् । वक्रोक्तिविरोधाभासः श्लेषश्च ॥३१॥ सगुणवृत्तकुवलं-सूतमें पिरोये हुए गोल-गोल मुक्ताफलोंसे सहित था और सुलोचना जयकुमारके लिये लक्ष्मी, रति, तथा जगत्का आनन्द देनेके लिये समान देश अथवा सदा समर्थ आँखको पुतलीके समान थी ॥३०॥ अर्थ-अजवपुषा-बकराके शरीरको धारण करने वाले जयकुमारके द्वारा सुरक्षित अथवा स्वीकृत वह महिषी-भैंस कामधेनुता-गोरूपताको प्राप्त हो गई यह विरोध है, परिहार इस प्रकार है-अजवपुषा-श्रीकृष्णके समान शरीर वाले जयकुमारके द्वारा स्वीकृत सुलोचना कामधेनुताको प्राप्त हो गई इच्छित फल देने वाली हो गई। तथा अविकालहृदा-जिसका हृदय मेष-मेड़ाके लिये कालरूप-यमके समान है, ऐसे जयकुमारने जिसे प्राप्त किया था वह अविनीतामेषके द्वारा क्या कभी ले जायी जा सकती है ? अर्थात् जो मेषको नष्ट करने वाला है उसके पास अविनीता-मेषके द्वारा ले जायी गई सुलोचना कैसे पहुँच सकती है ? यह विरोध है, इसका परिहार इस प्रकार है-जो सुलोचना अविकारहृदा-विकाररहित हृदय वाले जयकुमारके द्वारा प्राप्त की गई थी वह अविनीता-विनयसे रहित कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। भावार्थ-राजा जयकुमारकी पट्टराज्ञी सुलोचना मनोरथको पूर्ण करने वाली तथा अत्यन्त विनम्र थी ॥३१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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