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________________ ३६-३८] द्वाविंशः सर्गः १०२५ तथापि आवश्यककर्मणि भगवत्पूजाविकार्ये परहस्ता पराधीना नाभूत्, किन्तु तत्स्वहस्तेनैव चकार । तथा देवीत्युविता कथितापि गुणमये निजहृदये स्वां राज्ञों नान्वभूत्, किन्तु सर्वसाधारणस्त्रीजातिवद् मन्यमाना समवर्तत सा ॥३५॥ तस्मिन् साधुसपर्याषीने तमनुचकार पथोहाहीने । देवाराधनसमये वारा ववती तस्मै सोपस्कारान् ॥३६॥ तस्मिन्नित्यादि-साधूनां सपर्या पर्युपासना तदधोने तस्मिन् जयकुमारे भवति किलाहीने पवित्रे पथीह मार्गे धारातमनुचकार तथैव सपर्या सापि कृतवती या बाला देवाराधनसमये तस्मै जयकुमारायोपस्कारान् तदुपकरणानि ददती बत्तवती साऽसीत् ॥३६॥ सेशति सायंविधिमग्नामाप्याभूद् गृहकार्यनिमग्ना । स यदा प्रजाहितायनयात्रो सापि तदोचितसम्मतिदात्री ॥३७॥ सेशमतिमित्यादि-सा सुलोचनापीशस्य स्वामिनो मति सायंविधौ मग्नामाप्य स्वयं गृहकार्ये रन्धनक्षोटनावी निमग्नासोत् खलु। स जयकुमारो यदा प्रजाया हितस्यायनं वर्त्म तस्य यात्री प्रजाहितचिन्तकोऽभूत् तदा तस्मिन् काले सा सुलोचनापि उचितां सम्मतिं ददातीत्युचितसम्मतिदात्री समभूत् ॥३७॥ तेजस्विनः करेणापन्ना मृक्षणतनुरासीत् सा स्विन्ना । समुवियाय तस्या यदपाङ्गश्चित्रं सोऽभूत्कण्टकिताङ्गः ।।३८॥ तेजस्विन इत्यादि-तेजस्विनो वह्नरिव जयकुमारस्य करेणापन्ना समाक्रान्ता सा नक्षणस्य नवनीतस्य तनुरिव तनुर्यस्यास्सा स्विन्ना स्वेदनशीलासीत्, युक्तैव तावन्मृक्षणस्य नहीं थी, सब कार्य स्वयं करती थी तथा वह देवी कही जाती थी फिर भी सर्वसाधारण स्त्रीके समान अपने आपको मानती हुई रहती थी ॥३५॥ . अर्थ-यदि जयकुमार साधुओंकी उपासनामें लीन होते थे तो यह सुलोचना भी उनका अनुकरण करती थी और जयकुमार यदि देवपूजा करते थे तो उस समय यह उन्हें उपकरणादि देती थी ॥३६|| ___ अर्थ-वह सुलोचना पतिकी बुद्धिको सन्ध्यावन्दनादि विधिमें निमग्न पाकर गृहकार्यमें निमग्न हो जाती थी और जब वे प्रजाके हितसम्बन्धी मार्गके यात्री होते थे तब उन्हें उचित सम्मति देने वाली होती थी॥३७॥ अर्थ-मक्खनके समान कोमल शरीरवाली सुलोचनाका जब अग्निके समान तेजस्वी जयकुमार हाथसे स्पर्श करते थे, तब वह स्वेदसे युक्त हो जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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