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________________ १०२० जयोदय- महाकाव्यम् [ २७-२८ नीयोऽभूत्, आत्मानं पश्यतः स्वात्मानुभवं कुर्वतः सन्ध्यावन्दनसमये स्वात्मचिन्तनतत्परस्यापि ज्ञस्य तस्य दृशि विचारे कोऽप्यन्यो न बभूव 'आत्मवत्सर्वभूतेषु य पश्यति स पण्डितः' इति सूक्तेः । काव्यलिङ्गमलंकारः ||२६|| मदनधरा च धरा च जयस्य द्वे प्रिये श्रियेऽभूतां तस्य । सन्निदधत्यौ हुत्ते ॥२७॥ भूभुजो भुजे इवानुवृत्ते तुल्ये मदनधरेत्यादिइ-तस्य भूभुजो जयस्य हृद् हृदयं सन्निदधत्यौ घृतवत्यो मदनधरा कामजनिका सुलोचना च पुनर्धरा च वसुधा च द्वे प्रिये श्रिये वैभवाभूताम् । ते चानुवृत्ते अनुकूलाचरणकारिण्यौ 'यथा राजा तथा प्रजा' इत्यादिसुक्तेः, अनुवृत्ते वर्तुलाकारे भुजे इव तुल्ये भवतुः । यथा स पृथ्वीमनुबभूव तथैव सुलोचनां यथा वा सुलोचनाप्रेमपरोऽभूत्तथैव पृथ्वीपालनपरायणश्च । उपमालंकारः ॥२७॥ वेणूदित सम्पदोऽबलाया गुणमाप्त्वा भूच्चापलतायाः । सरलं तरलं मनोवरस्य यदानङ्गमदहानिकरस्य ॥२८॥ वेणूदितेत्यादि- - यदा यस्मिन्समयेऽनङ्गमदहानिकरस्य सौन्दर्येण जित्वा कामदेवतोऽपि श्रेष्ठस्य वरस्य प्रवरस्य तस्य जयकुमारस्य मनो यत्सरलं तदपि तरलं जातं तलं लक्ष्यवेधस्थानं लातीति तललमिति । यवा खलु वेणुना वंशेनोदिता उक्तास्सम्पदः समीचीनाः सब लोगोंके सुख-दुःख में सम्मिलित हो उनका दुःख दूर करते थे, वे राजाओंकी सभामें सम्माननीय थे और जब वे सन्ध्यावन्दनादिके समय आत्मावलोकन करते थे तब उस ज्ञानी राजाकी दृष्टिमें कोई दूसरा नहीं रहता था, सबको वे अपने समान ही देखते थे । प्रसिद्ध भी है जो सबको अपने समान देखता है वही पण्डित कहलाता है - ज्ञानी कहा जाता है ||२६|| अर्थ- मदनधरा - कामकी आधारभूत सुलोचना और पृथिवी ये दो प्रिया ही राजा जयकुमारके वैभवके लिये हुई थीं । वे भुजाके समान अनुकूल आचरण करती थीं तथा सदा ही उनके हृदयको धारण करती थीं । भावार्थ - राजा गार्हस्थ्य धर्मका पालन करते हुए प्रजाका पालन करते थे । वे जिस प्रकार अपने मनमें सुलोचनाका ध्यान रखते थे, उसी प्रकार पृथिवीका भी ध्यान रखते थे ||२७|| अर्थ - स्वकीय सौन्दर्यसे कामदेव के अहंकारको नष्ट करने वाले राजा जयकुमारका सरल मन मुरलीके समान मधुर स्वर वाली अथवा वंश परम्परासे प्राप्त सम्पदा से युक्त सुलोचनाके सौन्दर्यादि गुणरूप डोरीको प्राप्तकर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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