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________________ २१-२३] द्वाविंशः सर्गः १०१७ स्पर्शनेन रोमा०चनभावाच्छिशिरश्रीरिच कम्पनदा वा। विषमाशुगसाधितसीत्कारपुरस्सरं धृतरवच्छदारम् ॥२१॥ स्पर्शनेनेत्यादि-स्पर्शनेनालिङ्गनेन कृत्वा सात्त्विकभावेन रोमाञ्चनभावात् पुलकिताङ्गतया कम्पनं ददाति सा कम्पनदा, विषमाशुगेन पञ्चबाणेन कामेन साधितः सम्पावितो यः सीत्कारस्तत्पुरस्सरं धतो रदच्छद ओष्ठो ययाऽरं शीघ्रमेव शिशिरीरिव यथा शिशिरसम्पत्तिः स्पर्शनेन शीतसद्धावेन रोमाञ्चनभावात् कम्पनकी विषमेण वायुना सीत्कारपूर्वक संधूतौष्ठवतो भवति तथैव । उपमालंकारः ॥२१॥ ललितालकां मूर्धभुवमस्या मुक्ताश्रितामुरोजसमस्याम् । अमृतमयं वदनच्छदबिम्ब लब्ध्वा चाम्बरचुम्बि नितम्बम् ॥२२॥ रामां च धामिव च निगद्यासौ सर्वेष्वङ्गेष्वनवद्याम् । नाकिजनानामाप समृद्धिमुक्तिरियं न तु विस्मयकृद्धि ॥२३।। भावार्थ-कमलका विनाश करनेके लिये होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी सरसमानस--सरस चित्त वाले राजा जयकुमारके कमलस्याभावार्थ-आत्ममलका नाश करनेके लिये नियमसे हुई थी। शीत ऋतुमें कमलोंका अभाव होता ही है ।।२०।। अर्थ-जो स्पर्शन-आलिङ्गनके कारण समुत्पन्न रोमाञ्चसे सहित थी तथा कम्पनरूप सत्त्विक भावको दे रही थी, साथ ही कामसे संपादित सीत्कारसे सहित ओठको धारण कर रही थी. वह सलोचना शीत ऋतके समान जान पड़ती थी, क्योंकि जिस प्रकार शीत ऋतु शीतल स्पर्शसे रोमाञ्च उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार सुलोचना भी अपने स्पर्शसे वल्लभके शरीर में रोमाञ्च उत्पन्न कर रही थी तथा स्वयं भी वल्लभके स्पर्शसे रोमाञ्चित हो रही थी। जिस प्रकार शीत ऋतु शीतलताके आधिक्यसे लोगोंके शरीरमें कम्पन उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार सुलोचना भी वल्लभके शरीरमें वेपथु नामक सात्त्विक भावसे कम्पन उत्पन्न कर रही थी तथा स्वयं भी वल्लभके स्पर्शसे कम्पनका अनुभव कर रही थी और जिस प्रकार शीत ऋतु विषम-आशुग तीक्ष्ण वायुके द्वारा लोगोंके अधरोष्ठमें सीत्कार उत्पन्न कर देती है, उसी प्रकार सुलोचना भी कामातिरेकके कारण नायकके द्वारा दष्ट होने पर सीत्कार करने वाले अपरोष्ठको धारण कर रही थी ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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