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जयोदय- महाकाव्यम्
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संयुक्तो 'भ्रमरस्य वल्लभस्य विस्तारो यत्र सा पक्षे कमलानां वारिजानामन्वयी अनुयायी भ्रमराणां षट्पदानां विस्तारो यत्र सा, पातालं गतं नोचैमृदु कोमलमुदरं जठरं यस्यास्सा पक्षे पातालं गतं मृदकं जलं राति ददातीति सा, आराच्छीघ्र तेन जयकुमारेण शरदिवान्वमानि अनुमानिता । 'कमलं जलजे तोरे क्लोम्नि तोषे च भेषजे' इति विश्वलोचनः । इलेषोपमालंकारः ॥ १९ ॥
मकरकेतु संक्रमोदिता या शीतश्रीरिव साभूज्जाया । कमलस्याभावार्थमवश्यं सरसमानसस्यावनिपस्य ||२०||
मकर के त्वित्यादि - - या जाया स्त्री मकरकेतोः कामस्य संक्रमेण प्रसारेणोदिता कीर्तिता, सरसं मानसं चित्तं यस्य तस्यावनिपस्य राज्ञः कस्यात्मनो मलं पापं तस्याभावार्थं त्रिवर्गसम्पाया पुण्यपूर्तयेऽवश्यमेवाभूत् । शीतश्रीरिव यथा शीतश्रीः मकरके मकरनामराशौ तु यः संक्रमो रविसमागमस्तेनोदिता, सरसस्य मानसनामसरोवरस्यापि कमलस्य जलजातस्याभावार्थं स्यात् । शीतत कमलविनाशवद्यस्याः सम्बन्धेन पापहानिनयस्य । उपमालंकारः ॥२०॥
सहित होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी विशदाम्बरा - उज्ज्वल वस्त्रोंसे सहित थी । जिस प्रकार शरद् ऋतु मञ्जुलतारा-मनोहर नक्षत्रोंसे मुक्त होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी मञ्जुलतारा - चञ्चल कनीनिकासे सहित थी । जिस प्रकार शरद् ऋतु कमलान्वयिभ्रमरविस्तारा - कमलोंपर मंडराने वाले भौंरोंके विस्तार से सहित होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी कमलान्वयि भ्रमरविस्तारासंतोषसे संयुक्त वल्लभके विस्तारसे सहित थी तथा शरद् ऋतु जिस प्रकार पातालंगतमृदुदरा - नीचे गये हुए कोमल जलको देने वाली होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी पातालंगतमृदरा - नीचे की ओर झुके हुए कृश उदरसे तिथी ||१९||
अर्थ - जो जाया- सुलोचना
मकरकेतुसंक्रमोदिता - कामदेव के प्रसारसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई थी, वह शीतश्री - शीत ऋतुके समान सरसमानसस्य - सरस चित्त वाले राजा जयकुमारके कमलस्य - आत्मसम्बन्धी पापका अभाव - नाश करनेके लिये हुई थी, अर्थात् त्रिवर्गकी पूर्तिके द्वारा पुण्य वृद्धिका कारण हुई थी । भाव यह है कि जिस प्रकार मकरके संक्रमोदिता - मकर राशिमें सूर्यके संक्रमणसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुई शीतश्री सरसमानसस्य-मानसरोवरके भी कमलस्था
१. 'भ्रमरः कामुके भृङ्गे' इति विश्व ० ।
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