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________________ १८-१९ ] द्वाविंशः सर्गः १०१५ तं चालंच भूषयामास । अयः वेशः प्रकारो भुवि जडताया मूर्खभावस्य यद्वा जलभावापकरणाय विनाशनाय यद्वा जड: प्रखरश्चासौ तापश्च जडतापस्तस्य करणाय ज्येष्ठो गुरुः ज्येष्ठमासश्चास्ति जडतापकरणायेति ॥ १७ ॥ मनोमयूरमुढे साडपापा सरसेङ्गितापहृतसन्तापा । चपलापाङ्गकृतचमत्कारा सज्जघनोदयमुपेत्य वारा || १८ || मन इत्यादि - साsपापा पापरहिता वारा (बाला) सतो जघनस्य कटिपुरोभागस्योदयस्तमुपेत्य रससहितेन शृङ्गारमयेन पक्षे जलमयेनेङ्गितेन चेष्टितेनापहृतः सन्तापो यस्यास्सा चपलेनापाङ्गेन कटाक्षेण पक्षी चपला विद्युत् तस्या अपाङ्गेन कटाक्षेण कृतश्चमत्कारो यया सा मन एव मयूरस्तस्य मुदे प्रसन्नतायं समभूत् । श्लेषोऽलंकारः ||१८|| विशदाम्बरा च मञ्जुलतारा कमलान्वयिभ्रमरविस्तारा । पातालंगतमृदराराच्छर दिवान्वमानि तेन वारा ।। १९।। विशदाम्बरेत्यादि - विशदं निर्मलं स्पष्टं चाम्बरं वस्त्र गगनं वा यत्र सा, मञ्जुला तरला तारा नयनेक्षणिका पक्षे नक्षत्राणि यत्र सा, कमलेन सन्तोषेणान्वयी ग्रीष्म ऋतु जेठका महीना जिस प्रकार जडतापकारण - जलके गर्म होनेका कारण है, अथवा जलस्वभावको नष्ट करनेवाला है, उसी प्रकार सुलोचना भी जडतापकरणाय - मूर्खताको दूर करनेवाली थी । 'ज्येष्ठो जडतापकारणाय' इसके स्थानमें 'ज्येष्ठोऽस्ति जडतापकारणाय' यह पाठ भी संगत है ॥१७॥ अर्थ - जो पापसे रहित है, अपनी सरस-शृंगारमय चेष्टाओंसे जिसने संताप दूर कर दिया है और चंचल कटाक्षोंसे जिसने चमत्कार उत्पन्न किया है, ऐसी . वह वारा- बाला सुलोचना प्रशस्त जघनके उदयको प्राप्तकर राजा जयकुमारके मनरूपी मयूरकी प्रसन्नताके लिये हुई थी । अर्थान्तर - पापरहित वह सुलोचना, जिसने कि सरस - सजल चेष्टाओंसे सन्तापको दूर कर दिया था और बिजलीके कटाक्ष से - वार-वार कोंदने से जिसने चमत्कार उत्पन्न किया था, सज्ज- सजल घन - मेघके उदयको पाकर वाराजलके द्वारा जयकुमारके मनरूपी मयूर के प्रमोद के लिये हुई थी । तात्पर्य यह है कि सुलोचना वर्षा ऋतुरूप थी ॥ १८ ॥ अर्थ - राजा जयकुमारने उस बाला - सुलोचनाको शीघ्र ही शरद् ऋतुके समान माना था, क्योंकि जिस प्रकार शरद् ऋतु विशदाम्बरा - स्वच्छ आकाशसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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