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इस महाकाव्यकी नवार्थघटनाके विश्लेषणार्थ महाकविने संस्कृत भाषामें ही पदपदार्थस्फोरणी स्वोपज्ञ व्याख्या लिखकर काव्यको परिमण्डित किया है। जहाँ तक मुझे विदित है, महाकाव्य क्षेत्रमें अद्यावधि यह अप्रतिम निदर्शन है, जहाँ महाकविने स्वरचित महाकाव्यकी संस्कृत में स्वयं व्याख्या प्रणीत की हो। अन्यथा ऐदंयुगीन नवीन मल्लिनाथका अन्वेषण करना होता और यह महाकाव्य इस युगमें तो प्रचारमें आनेसे वञ्चित ही रह गया होता।
इतनी अगाध वैदुषीके रहते हुए भी वाणीभूषण महाकविने महाकवि कालिदासकी 'क्व सूर्यप्रभवो वंशः' 'अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन् पूर्वसूरिभिः' इत्यादि उक्तियों में प्रकाशित विनयके समान विनयको प्रकट करते हुए कहा है कि कवि तो वस्तुतः जिनसेन इत्यादि हैं । आश्चर्य है कि हम भी कवि बन गये हैं। यह उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार कि कौस्तुभ मणि ही वास्तविक मणि है किन्तु काँचको भी मणि कहा जाता है। कविका तात्पर्यार्थ यह है कि वास्तविक कवि तो जिनसेन प्रभृति हैं, हम तो नामके कवि हैं
कवयो जिनसेनाद्याः - कवयो वयमप्यहो।
कौस्तुभोऽपि मणिर्यद्वन्मणिः काचोऽपि नामतः ॥ कविने सभी अधिकारी गुणदोषविवेचक विद्वानोंसे आग्रह किया है कि वे इस काव्यके गुणदोषोंकी समीक्षा करें किन्तु आत्मश्लाघी असहृदय व्यक्ति दूर रहें--
गुणविगुणविदं तु स्रागपि ख्यापयन्तु
विशदिमविशदंशा पेयता केऽत्र हंसाः। अशुचिपदकतुष्टा आत्मघोषाः सुदुष्टाः
किमिव नहि वराकाः काकुमायान्तु काकाः।। महाकविने इस काव्यमें वर्णित अनेक घटनाओंको अपने जीवनानुभवोसे संवारा है। जयकुमारके पूर्वाद्धं एवं उत्तरार्द्ध जीवनसे कविका सुतरां साम्य दिखता है। बालब्रह्मचारी कवि भूरामलजी जीवनकी सन्ध्यावेलामें वीतराग होकर मुनि बन गये और ज्ञानसागर अन्वर्थ नामसे विख्यात हुए। उन्होंने इस काव्य के उपान्त्य प्रश्नगर्भोत्तर पद्य द्वारा अपना हृद्य प्रकाशित कर दिया है, जिसमें श्रद्धा, व्रत और विद्या रत्नत्रयसे युक्त मनकी आकांक्षा की गई है
श्रवणीयास्तु का शुद्धा ब्रह्मविद्भिः किमजितम् ।
विद्वद्भिः का सदा वन्द्या मण्डितं तैः किमस्तु नः ।।
साहित्यकी कतिपय विधाओंका परम लक्ष्य तो सत्य ही होता है । सत्य.की अभिराम परिनिष्ठामें ही काव्यके प्राप्तव्यकी इतिकर्तव्यता निहित रहती है।
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