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सत्यके इस चरम और परम निकषकी महत्ताको हृद्गगत कर लेनेपर हमें इस महाकाव्य की कविताका उत्कर्ष भी कविके काल्पनिक जगत्के अन्तःस्थलमें संनिहित सत्य में परिलक्षित होता है। मानव जीवनके मूलभूत विचारोंमें जब तक किसी महान् आदर्शका उत्थान नहीं होता, तब तक हम सबके अन्तःकरणमें विद्यमान सान्द्र तथा बलवती भावनाओंका उद्रेक भी नहीं हो पाता।
___ यद्यपि कविके हृदयसे कविता स्रोतस्विनी स्वान्तःसुखाय ही फूट पड़तो है, तथापि अनुवर्ती परोपकारी जन लोककल्याणको कामनासे प्रेरित होकर लोकोपकारी काव्यके भावों तथा आदर्शोको जन-जनके हृदय तक पहुँचानेकी ललक मनमें संजोये रखते हैं। उसे मूर्त रूप प्रदान करनेमें जनभाषा परम सहायक बनती है । इसी दृष्टिसे देवभाषामें निबद्ध इस उदात्त महाकाव्यको राष्ट्रभाषा हिन्दीमें अनूदित करानेका भाव इसके प्रकाशकोंके हृदयमें प्रस्फुरित हुआ। संस्कृत साहित्य तथा जैन दर्शनके सुयोग्य विद्वान् साहित्याचार्य श्री पन्नालालजी जैन इस पुण्यकार्य में प्रवृत्त हुए। वे स्वोपज्ञ व्याख्याका आश्रय लेकर ग्रन्थग्रन्थिविभेदनपूर्वक काव्यकी आत्माको पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करने में कृतकार्य हुए हैं।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि स्वोपज्ञ संस्कृत टीका तथा विशद हिन्दी व्याख्यासे विभूषित यह महाकाव्य संस्कृत विद्वानों एवं हिन्दीवेत्ता गुणग्राही विद्याप्रेमियोंके लिए समान रूपसे उपयोगी सिद्ध होगा।
भागीरथप्रसाद त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री'
"निदेशक,
महावीर जयन्ती २०४६ वि०सं० वाग्योगचेतनापीठम्, शिवाला, वाराणसी
न संस्थान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
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