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सीनाः (१४, ५०); नदीन-समुद्र(१४, ८३), निरवापयत्-प्रोञ्छयत् (१४, ९३)निर् + वापि बुझाने अर्थमें ही प्रसिद्ध है, प्रोञ्छनार्थ में अप्रसिद्ध । आभूत-ऐच्छत् (१४, ९५) अप्रसिद्धार्थ है आ+भू धातु का। इसी प्रकार निरूहम् निस्संकोचम् (१४,९५); तिमिलम् = समुद्रम् (१५, ९) प्रतीपपत्नी - सपत्नी (१४,३०), अशीना = कर्तव्यविचारशीला (१५, ६) इत्यादि । वस्तुतः इतने विशाल काव्य में अप्रयुक्तताप्रयोगके उक्त उदाहरण अनिन्द्यसुन्दरी रमणीके कपोल पर उभड़े तिलके सदृश काव्यसौन्दर्य-वर्धनमें सहायक ही बन रहे हैं।
'अनामिका सार्थवती बभव'को भाँति काव्यमें अन्वर्थभावके कई उदाहरण मनोरम बन पड़े हैं । यथा--रञ्जनी नामक मदिराका नाम सार्थक हुआ क्योंकि वह स्त्रियोंके हृदयमें, वचन, गालों, नेत्रों और समस्त चेष्टाओंमें अनुराग प्रकट करने वालो थो--
हृदि वाचि कपोलयोदृशोर्वा निखिलेष्वेव विचेष्टितेष्वपि ।
अनुरागमिवानुभावयन्ती प्रथितार्थाऽजनि रजनो जनो ।। १६, ७९
श्रीतिलक नामक पुष्पकी व्युत्पत्तिके प्रसंगमें अन्वर्थभावका प्रयोग रमणीय बन पड़ा है--
नर्म वयस्ययाऽऽले: श्रीतिलकं कलितं खलु भाले।
रुचात्मनस्तु जगत्तिलकाया अन्वर्थभावमेवमथायात् ।। १४, २९ । जलके सर्वतोमुखी पर्यायको सार्थकता बताते हुए अर्थचरितार्थता प्रस्तुत की है
तटस्थितानां वारि योषितां मुखारविंदच्छविन्दलोदितम् । श्रियमुपेत्य साम्प्रतं ललाम सर्वतोमुखं बभूव नाम ।। १४, ५६।
समष्टितः यह महाकाव्य इस शताब्दीकी सर्वश्रेष्ठ काव्यकला का निदर्शन है। प्राचीनताके साथ नवीनताका असाधारण समन्वय प्रस्तुत करता है । 'अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः' इस उक्ति का निदर्शन ऐदंयुगीन किसो काव्यमें देखना हो, तो वह है 'जयोदयमहाकाव्यम्'। यह अलंकारोंकी मंजूषा, चक्रबन्धोंकी वापिका, सूक्तियों और उपदेशोंको सुरम्य वाटिका है । इसमें कविके पाण्डित्य एवं वैदग्ध्यका अपूर्व सम्मिलन काव्यकी उदात्तताका परिचायक है । काव्यक्षेत्रके अन्धकारयुगको गौरव प्रदान करने वाला यह गौरवमय महाकाव्य है। नवार्थघटनाके लिए इसकी कहीं कहीं दुरूहता अस्वाभाविक नहीं है । प्रकृतिनिरोक्षणमें महाकविकी सूक्ष्मेक्षिका-शक्तिको उसकी कल्पनाशक्तिने पूर्णतः परिपुष्ट किया है जयकुमार तथा सुलोचनाके विषयमें विरचित पूर्ववर्ती काव्योंको रत्नमालामें जयोदयमहाकाव्य अनय मणिके रूपमें देदीप्यमान हो रहा है।
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