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________________ जयोदय महाकाव्यपर यदि प्राचीन काव्योंका प्रभाव है, तो वह आधुनिक संस्कृतसे भी अछूता नहीं रहा है। कविने ७, ६३ तथा चतुर्दश सर्गके प्रथम श्लोककी स्वोपज्ञ संस्कृत व्याख्यामें 'अभिलाष' शब्दका हिन्दीकी भाँति स्त्रीलिंगमें प्रयोग किया है । भुज् धातु पालन और अभ्यवहार = भक्षण अर्थोंमें व्यवहृत होता है। इसका आत्मनेपदमें प्रयोग केवल भोजनार्थमें विहित है, रक्षण या पालन अर्थमें तो परस्मैपदमें ही व्यवहार होगा। किन्तु जयोदयमहाकाव्य(२, १५३) में भोजनार्थमें 'भुनक्ति' का परस्मैपदमें व्यवहार किया गया है। १४, ५९ से 'सिञ्चितुम्' का प्रयोग किया गया है । वस्तुतः ‘सेक्तुम्' प्रयोग ही शिष्टसम्मत है। १७, ९ में 'पुनीतनामा' कहा गया है। पुनीत शब्द शिष्टजनाननुमोदित है । केवल श्रीमद्भागवतमहापुराणमें इसका प्रयोग हुआ है। किंतु वह न तो शिष्टजनानुमोदित है और न व्याकरणसंमत हो। सभी संस्कृतविज्ञ जन जानते हैं कि सेव धातु आत्मनेपदो है। किंतु इस महाकाव्यमें (२६, १००) उसका परस्मैपदमें प्रयोग किया गया है-सेवन्तु । स्वोपज्ञ व्याख्यामें उसका 'समाराधयन्तु' अर्थ भो बताया है । इसी प्रकार 'मृष्टुम्' (१४, ६०)के स्थान पर 'माष्टुम्' उचित था-'मृजेर्वृद्धिः' । पल्लाके अर्थमें 'पल्ल' (१६, ७) शब्द प्रादेशिक भाषासे प्रभावित है। लक्षण ग्रन्थोंमें अप्रयुक्तताप्रयोगको एक प्रकारका काव्यदोष माना गया है। इस महाकाव्यमें अनेकत्र अप्रचलित शब्दोंका व्यवहार हुआ है । श्लेषालंकारके विषयमें अर्थान्तरके लिए इस प्रकारके प्रयोग कथञ्चित् मर्षणीय हो सकते हैं। किंतु सामान्य स्थलोंमें वे अमर्थ्य हैं । 'जजृम्भे (१४, ३६) का अर्थ 'समर्था बभूव' अप्रचलित है। कविने काव्यमें नवीन शब्दोंके उपयोगके लिए विश्वलोचन नामक शब्दकोषकी प्रायशः सहायता ली है । १५,८ की स्वोपज्ञ संस्कृतटीका की टिप्पणी में 'विश्वकोषके 'भृङ्गः पुष्पत्वपे खिड्गे तथा धूम्याटपक्षिणि' को उद्धृत किया है। टिप्पणीमें 'खिड्गो विटः' भो लिखी है। वस्तुतः 'खिड्गे' के स्थान पर षिड्गे' होना चाहिये। संस्कृतवाङमयमें खिड्गका प्रयोग क्वाचित्क है। प्राकृतभाषामें "षिड्ग'के स्थान पर खिंग ही मिलता है-'अणेगखिगजणउव्वासियरसणे' । इसी प्रकारके अन्य अप्रसिद्ध शब्दोंके कुछ निदर्शन प्रस्तुत हैं-गमुकगोलम् = सुवर्णपिण्डम् (१५, १७), श्रणति–ददाति (१५, १८), चङ्गः दक्षः (१६,४) । तुलनीय-हिन्दीमें भलाचंगा । अन्दुक-अलंकरण (१६, १०); भरूक्तैः स्वर्णघटितैः (१७, ७) । श्लेषालंकारके प्रसंग में कवि ने 'आत्मभूतनयता' के दो अर्थ किये हैं-१. वायुसेवनभाव तथा २. नारदत्वम् । इस प्रकार यह काव्य नैषधीयचरितकी तरह बहुत्र व्याख्यागम्य भी बन गया है। कौतुकिता = पुष्पवत्ता (१४, ४०); जलस्रुतेः सरितः (१४, ४४), रीणाः-उदा www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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