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महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू परिवार, सुभाष चन्द्र बोस, बल्लभ भाई पटेल, पद्मराज, राजगोपालाचार्य, सरोजनी नायडू, जिन्ना इत्यादिकी श्लेष द्वारा प्रशस्त अभिव्यक्ति बन पड़ी है । गणतन्त्रको सफलताका समर्थन करने वाली असेम्बलीका महत्व अंकित है । इस काव्यके राष्ट्रीयता-सुधारससे परिपूर्ण ये चार पद्य शाकुन्तलम्के चार पद्योंके समान चिरस्मरणीय रहेंगेसत्कीर्तिरञ्चति किलाभ्युदयं सुभासा
स्थानं विनारि मृदुवल्लभराट् तथा सः । याति प्रसन्नमुखतां खलु पद्मराजो निर्याति साम्प्रतमितः सितरुक्समाजः ॥ मञ्जुस्वराज्य परिणामसमर्थिका ते
लसतु प्रभाते ।
सम्भावितक्रमहिता सूत्रप्रचालनतयोचित दण्डनीतिः सम्यग्महोदधिषणा सुघटप्रणीतिः ॥ यद्वा सुगां धियमिता विनतिस्तु राज
गोपाल उत्सवधरस्तव धेनुरागात् । हृष्टा सरोजिनि अथो विषमेषु जिन्ना
नुष्ठानमेति परमात्मविदेकभागात् ॥ गान्धीरुषः प्रहर एत्य मृतक्रमाय
सत्सूत नेहरुचयो बृहदुत्सवाय । राजेन्द्र राष्ट्र-परिरक्षणकृत्तवाय
मत्राभ्युदे सहजेन हि सम्प्रदायः ॥ काव्यके रस और भाषा में अद्वय योगकी स्थिति रहती है । अभिनव गुप्त ने कहा है कि रसाभिभूत हृदय वाले कविके द्वारा अभिव्यक्त अलंकार (भाषाका वह अशेष सौन्दर्य ) कटककुण्डलादिवत् कहीं बाहरसे जोड़ा हुआ नहीं रहता, प्रत्युत वह काव्यपुरुषका स्वाभाविक देहधर्म होता है
'न तेषां बहिरङ्गत्वं रसाभिव्यक्तिौ' । प्रथमतः होती है रसानुभूति, तदन्तर उसकी अलंकृत अभिव्यक्ति । रसानुभूति तथा शब्दाभिव्यक्तिदोनों एक ही चित्तप्रयास द्वारा प्रस्फुटित होते हैं। जिस चित्तप्रयास द्वारा रसविधारण होता है, उसीके द्वारा अलंकार इत्यादिके माध्यम से रस भी प्रस्फुटन पाता है । जयोदय महाकाव्य में यद्यपि रसके साथ अलंकारोंका पर्याप्त प्रयोग किया गया है, जिसे समालोचक इस प्रकारके काव्यमें हृदयपक्षका अभाव तथा कलापक्षका प्राधान्य मानते हैं, तथापि इस काव्य में जैन सप्तानुसन्धान काव्यकी भाँति अनैसर्गिकता तथा दुरूहताने शरण नहीं ले ली है ।
कवियोंके द्वयाश्रय एवं
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