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शान्त रसका उपक्रम कविने प्रथम सर्गसे किया और उपसंहार अन्तिम अध्यायोंमें । इसलिए इस महाकाव्यमें शान्तरस अंगी है, अन्य शृङ्गार एवं वीररस उसके पोषक हैं।
प्रथम सर्गमें वर्णित है कि वनक्रीड़ा हेतु वनमें गये जयकुमारने एक मुनि के दर्शन किये । कवि उनके विषयमें लिखता है-इस भूमण्डल पर ये साधु मुनिराज, गुणस्थान और मार्गणाओंकी चर्चासे संपन्न हैं, उत्तम विधियुक्त धर्म धारण करने वाले हैं, प्राणिमात्रको अभयदान देने वाले हैं। ऐसा होने पर भी ये मुक्ति प्राप्त करनेमें तत्परतासे लगे हैं--
भुवि महागुणमार्गणशालिना सुविधधर्मधरेण च साधुना।
अभयमङ्गिजनाय नियच्छता यदपि मोक्षपरस्वतया स्थितम् ।।
बुद्धि ठिकाने रखने हेतु सरस्वतीकी आराधनाके लिए मुनि द्वारा दिया गया उपदेश शाश्वत बन गया है--
श्रीमती भगवती सरस्वती लागलंकृतिविधौ वपुष्मतीम् ।
राधयेन्मतिसमाधये सुधीः शाणतो हि कृतकार्य आयुधी ॥ स्त्रियोंसे वैराग्य उत्पन्न करने वाले अनेक पद्योंमें रुचिर भाव पिरोये गये हैं
स्मितरुचिताधरदलमनल्पशो जल्पन्ती मनुजेन केनचित् तरलितनयनोपान्तवीक्षणैः श्रणति क्षणमपरत्र च क्वचित् । अनुसंधत्ते धिया हि या पुनरपरं रूपबलोपहारिणं विदितमिदं युवतिनं भूतले या बिभर्ति परमेकताकिणम् ॥
कामिनीके समीप जब उसका प्रिय आता है, तब वह नीचा मुंह करके जमीन खुरचने लगती है। इस संकेतके द्वारा वह गूढ़ आशय प्रकट करती है कि यदि हमारे प्रेममें फंसोगे तो अधोगति प्राप्त करोगे। आश्चर्य है कि फिर भी कामान्धोंका मन नहीं चेतता है
अहह पार्श्वमिते दयिते द्रुतं नतदुशाऽवनिकूर्चनतोऽद्भुतम् ।
वदति यद्यपि भावि वधूजनो न तु मनः प्रतिबुध्यति कामिनः ।।
जयोदय महाकाव्यको पूर्ववर्ती महाकाव्योंसे जो नूतनता है, वह है उसमें वर्णित राष्ट्रियताकी महत्ताका सूचक भावबन्ध । अन्तमें कवि स्वयं स्वीकार करता है
राष्ट्र प्रवर्ततामिज्यां तन्वन्निधिमुधुरम् । गणसेवी नृपो जातराष्ट्रस्नेहो वृषेषणाम् ॥
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