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________________ स्थायी भाव माना जाता है । महाकविने चौदहवें सर्गके द्वितीय श्लोक द्वारा शृङ्गार रसके उद्दीपक उद्यानके सौन्दर्य रूपी विभावको दरसाया है । उक्त विभावके प्राप्त होने पर तटोद्यान में आया शिष्टजन समूह कामशृङ्गार रस: व्याकुल हो गया । विरोधाभास अलंकार द्वारा इसे भव्य भावभूमि पर सजाया गया है । श्लेषको सहायता से विरोधका परिहार हुआ है1 असुगतवैभववानिव तेन तत्र तथागतसमीरणेन । समजनि सुरतविचारविशिष्टो दूरतोऽपि चायातः शिष्टः ॥ चौदहसे लेकर सत्रहवें सर्गमें शृंगाररसके विविध रंगोंसे परिमण्डित चित्र सुसज्जित हैं । सखी द्वारा प्रेमसन्देश भिजवाने वाली नायिकाका निवेदन सुनें सखित्वं स्निग्धाङ्गी प्रभवति युवा सोऽपि तरलः तमित्रेयं रात्री रहसि कथनीयं मदुदितम् । समस्येयं क्लिष्टा दिशतु किलेष्टन्तु भगवा नियं वाचां वल्ली प्रसरति सती स्माम्बुजदृशः ॥ १५, ८८ । अमरुकशतकम् ता शृङ्गारकी श्लोक- शतावली ही है किन्तु यहाँ तो उसका भण्डार भरा पड़ा है । शृङ्गार रसका चषक सम्मुख पाकर पाठक उसीमें रम जाता है । अष्टम सर्ग में वीररसका सागर लहराता दिखाई पड़ता है । कवि उसमें ऐसा रमा है कि वीररसानुरूप भाषा वीररसका पतिभक्त रमणीकी भाँति अनुसरण करती प्रतीत होती है- Jain Education International उद्धूत-सद्धलिघनान्धकारे शम्पा सकम्पा स्म लसत्युदारे । रणाङ्गणे पाणिकृपाणमाला चुकूजुरेवं तु शिखण्डिमालाः ॥ ८ द्वयोः पुनश्चाहतिमुज्जगाम प्रपक्षयोरायुधसन्निनादः । प्रोल्लासयन्, सड्डमरुप्रसिद्धसूत्राङ्कवद् वीरनटान् समिद्धः । १२ शुण्डावता तस्य सता हता वा नवद्विपास्ते चपलस्वभावाः । यथाकथञ्चित्पदकाश्रयेण नयाः परेषां जिनवाग्रयेण ॥। ६७ । काराप्रकारायितमारुरोहानसं पुनश्चक्रपतेः सुतो हा । स्वयं सखोकृत्य तथाष्टचन्द्रान् प्रस्पष्टतन्द्रान् युधि कष्टचन्द्रान् ॥ ६८ अङ्गीचकाराध्व कलङ्कलोपी हरिञ्जयं नाम रथं जयोऽपि । खरोऽध्वना गच्छति येन सूर्यस्तेनैव सोमोऽपि सुधौवधुर्यः ।। ६९ । तेजोऽप्यपूर्वं समवाप द्वीप इव क्षणेऽन्तेऽत्र जयप्रतीपः । निःस्नेहतामात्मनि संब्रुवाणस्तथापदे संकलित प्रयाणः ।। ७० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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