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________________ है। जिस प्रकार आभूषण रमणीके शरीरको पहलेसे कहीं अधिक रमणीय बना देते हैं, उसी प्रकार अलंकार भी भाषा और अर्थकी सौन्दर्यवृद्धि करके उनमें चमत्कार लाते हैं। इतना ही नहीं वे रस, भाव आदिको उत्तेजित करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। शास्त्रीय पाण्डित्यके बिना अलंकारोंका प्रयोग सूझबूझके साथ करना नितान्त कठिन कार्य है। श्रीभुरामल इस शताब्दीमें अलंकार शलोके श्रेष्ठ कवि ठहरते हैं । वे श्लेषालंकारका समुचित प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं-१४, १; २,४; १५, २१; १६, ३; १०; १३,२०:४९ इत्यादि । श्लेषोपमा और श्लेषसे अर्थान्तरके लिए द्रष्टव्य १४, ५; १५, ५०; १८, १२ इत्यादि स्थल। कहीं कहीं तो एक ही पद्य में श्लेषके साथ अनुप्रास और रूपक अलंकार का भी प्रयोग हुआ है (द्र० १६, २० ) तो कहीं वक्रोक्तिका (१६, ४९) । महाकविके द्वारा प्रयुक्त अन्य अलंकारोंमें समासोक्ति (१४, १; ६; ४०; ४६; ५८; ८१), समासाक्तिसे अर्थान्तर (१४, ७), सहजसहयोगितालंकार, उपमा, यमक, अन्यथानुपपत्ति, अर्थान्तरन्यास, सनासोक्ति, रूपक, अपह्न ति, भ्रान्तिमान्, अनुमति, रूपकयुक्तसमासोक्ति, विरुद्धभाव, उल्लेखालंकार, संकर, उल्लेख-यमक, उल्लेखके साथ उपमा एवं अनुप्रास इत्यदि मुख्य हैं । श्लेषालंकारके अनन्तर यदि कवि किसी अन्य अलङ्कारके प्रयोगमें सिद्धहस्तता दिखा सका है, तो वह है उत्प्रेक्षालंकार । अमरुकके काव्यकी भांति इस महाकाव्यमें मौग्ध्याभिव्यक्ति इत्यादि भी अलंकार बन गये हैं। यह महाकाव्य छन्दःशास्त्रकी तो मञ्जूषा ही है। इस महाकाव्यमें वार्णिक छन्दोंके साथ मात्रिक छन्दोंका समुचित विन्यास हुआ है। काव्यमें रसध्वनिकी योजनाके बिना अलंकार (आभूषण) मृतक स्त्रीके अलंकारकी भाँति निष्फलताको स्थिति बनाते हैं । रस रूपी आत्माकी उपस्थिति रहने पर ही शरीर पर अलंकारोंका महत्त्व होता है. रसध्वनिर्न यत्रास्ति तत्र वन्ध्यं विभूषणम् । मृताया मृगशावाक्ष्याः किं फलं हारसम्पदा ॥ आचार्योंने साहित्य पर विचार करते समय उसका लक्षण किया'रसवद् वाक्यम्' । यह रस उनकी दृष्टि में साहित्यात्मा या काव्यात्मा है। यह रस शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स तथा शान्त नामक नौ विभागोंमें विभक्त हुआ है । एक ही रसके उक्त भेदोंके कारण क्रमशः रति (प्रेम) हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा (घृणा), विस्मय, (आश्चर्य) तथा निर्वेद नामक स्थायी भाव बनते हैं । इस महाकाव्यमें शृङ्गार, वीर एवं शान्त रसोंकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक ढंगसे की गई है । शृङ्गार रसकी उत्पत्तिमें रति अथवा प्रेमकी भावना अनवरत रूपसे बनी रहती है । इस कारण उसे शृङ्गार रसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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