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मुहर्न बद्धाञ्जलिरेष दासः सदा सखि प्रार्थयते सदाशः। कुतः पुनः पूर्णपयोधरा वा न वर्तते सत्करकस्वभावा ॥ १६,१३ ।
उल्लेखालङ्कारपूर्वक उपमालंकर तथा अनुप्रास इन तीनोंका उक्त वर्णन प्रसंगमें स्वाभाविक प्रयोग हुआ है
सिताश्रितं दुग्धमिवादरेण निपीयते संगमिनापरेण ।
अयोषितां तक्रमिवात्र नक्रसंकोचतः श्रीशशिरश्मिचक्रम् ॥१६,९॥
१३३ श्लोकों वाले सम्पूर्ण सत्रहवें सर्गमें कविने सुलोचनासुरतका उपन्यास किया है । सुरतानन्तर अष्टादश सर्गमें प्रभात वर्णन अच्छा बन पड़ा है। कवि अलंकारोंके बिना तो कोई वर्णन कर ही नहीं सकता । श्लेषसे अर्थान्तरका एक उदाहरण प्रस्तुत है प्रभातवर्णनके प्रसंगमें
विस्फूर्तिभृन्नवर किन्नवदद्रुरेष
प्रागुत्थितो वियति शोणितकोपदेशः। श्रीसद्मनोऽनुभवतो मधुमेहपूर्ति
भो राजरुग्विजयिनस्तव भाति मूर्तिः॥ अर्थान्तरसे राजरोग (क्षय) और मधुमेह जैसे आधुनिक अर्थोकी भी अवतारणा की गई है।
प्रातःकालिक वर्णनके साथ अर्थान्तर द्वारा अनेकान्तवाद सिद्धान्तको गुम्फित कर दिया
वोरोदिते समुदितैरिति संवदामः
कल्यप्रभाववशतः प्रतिबोधनाम । सम्प्रापितं च मनुजेश्चतुराश्रमित्व
मेकान्तवादविनिवृत्तितयासि वित्त्वम् ।। प्रभातवर्णनके प्रसंगमें कविने बताया कि प्रातःकालके समय द्विजराजवंश = तारागणोंको कहीं भी चमक-प्रतिष्ठा नहीं थी । अर्थान्तरसे ब्राह्मणोंकी बंश-प्रतिष्ठाके लिए वैश्यकी चिन्ताका भाव भी प्रकट किया है
न क्वापि भाति-अधुना द्विजराजवंशः
सुप्तोऽसि बाहुजसमाजसतां वतंस । कस्ते तुलाधर उदेति जनेषु वा यः
संविप्लवोऽत्र बहुधान्यसमीक्षणाय ॥१८,५७ । आचार्योंने अलंकारोंको काव्यशोभाकर, शोभातिशायी इत्यादि कहा है। इससे स्पष्ट है कि पहलेसे ही मनोज्ञ अर्थको सुन्दरतर बनाना अलंकारोंकी वृत्ति
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