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________________ १५, १८ श्लोकमें कवि कल्पना करता है कि नववयस्का पश्चिम दिशा वृद्ध पति सूर्यको पसन्द नहीं करती है। सूर्य प्राची दिशाका स्वामी भी है, अतः पश्चिम दिशा अन्यनायिकासक्त नायकको भी नहीं चाहती है। इसलिए वह उसे क्षण भरके लिए अपने पास नहीं रहने देना चाहती है। उसे अपने आकाश रूपी घरसे निकाल देना चाहती है प्राचीनतातोऽप्यनुरागवन्तं प्रतिश्रणत्येव नवा दृगस्तम् । निष्काशयत्याशु नभोनिकायात् सहस्ररश्मि चरमा दिशा या ॥ यहाँ 'चरमा' में पदच्छेद द्वारा ‘च रमा' अर्थ भी निकलता है। १५,२३ में कवि कल्पना करता है कि आकाशमें अनेक नक्षत्र छिटके हुए हैं, वे मानों पश्चिम समुद्र में सूर्यके गिरनेके कारण उचटे समुद्र जलके छींटे हों। एक दूसरी कल्पनामें नक्षत्रोंको अन्धकार रूपी राक्षसका दाँत बताया है। वह राक्षस सन्ध्यालालिमा रूपी रक्तका पान कर रहा है (१५,२४)। घर-घरमें जलने वाले दीपक मानों सूर्यके प्रतिनिधि हों। सूर्य अपने शरीरको खण्ड-खण्ड कर दीपकोंका वेष धारण कर घर-घर में सुशोभित हो रहा था (१५,२२) । रात्रिवर्णनमें कविने श्लेष आदि अलंकारोंकी सहायतासे कल्पनाओंको साकार रूप दिया है। यथा-उडुप = नौका तथा चन्द्रमा, तरणेविनाशःनौका तथा सूर्यका अदर्शन, नदीप - समुद्र एवं दीपकोंका अभाव, तिमिरे - अन्धकारमें और तिमि = मगरमच्छोंसे र = भरे, विकलानिका दूसरा अर्थ रलयोश्चक्यंकी दृष्टिसे विकराणि हुआ है (१५,२१)। चन्द्रोत्सवके वर्णनमें कविने नूतन उद्भावनाओंकी रत्नमंजूषा सँजो दी है। निशीथके पश्चात् पानोत्सव वर्णन। विधि और विधुके सप्तम्येक वचनमें शब्दश्लेषका आश्रय लेकर वक्रोक्ति अलंकार का ठाट दर्शनीय है (१६,७२) । माऽपहर कुचग्रन्थिं किमपास्ता तेऽस्ति हृद्ग्रन्थिः (१६, ६९) में भी सुन्दर वक्रोक्ति बन पड़ती है। १६, २० में श्लेष, अनुप्रास और रूपक अलङ्कारोंका एक साथ प्रयोग हुआ है। अर्धरात्रिमें कामदेवकी सहायताका हृद्य वर्णन हुआ है। इस सोलहवें सर्गमें हुए कामनिरूपण पर भी नैषधीयचरितका स्पष्टतः प्रभाव पड़ा है। कवि प्रायः सर्वत्र श्लेषालङ्कारका आश्रय लेकर दो अर्थोंका प्रतिपादन करता है। 'रामाभिधामाकलयन्ति नाम (१६,३) में कामी और संन्यासी दोनों अर्थोंका कुशलतापूर्वक प्रतिपादन हुआ है । कामको अजेय समझ कर सुन्दर पुरुष गृहदेवी की शरण में गया। यहाँ 'गृहदेविकायाः' में श्लेष है (१६, ४) 'अष्टाङ्गसिद्धः' द्वारा अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियों तथा स्त्रीके आठ अंगोंका अर्थ है । इस प्रसंग में श्लेष अनुप्रासालंकारकी एक छटा देखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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